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:: प्राग्वाट - इतिहास ::
तपागच्छीय श्रीमद् विजयाणंदसूरि दीक्षा वि० सं० १६५१. स्वर्गवास वि० सं० १७११
मरुधरप्रान्त के वररोह नामक ग्राम में श्रीवंत नामक प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि रहता था । उसकी स्त्री का नाम शृंगारदेवी था । वि० सं० १६४२ में चरित्रनायक का जन्म हुआ और कल्याणमल आपका नाम रखा गया । अतिशय प्रेम और स्नेह के कारण आप को सब कला, कलो कहकर ही सम्बोधित करते वंश - परिचय और दीक्षा थे । आप प्रखर बुद्धि एवं मोहक आकृति वाले थे। आपको होनहार समझ कर नव (ह) वर्ष की अल्प वय में यवन- सम्राट् अकबर-सम्मान्य जगद्विख्यात सूरि-सम्राट् तपागच्छाधिपति श्रीमद् विजयहीरसूरि ने वि० सं० १६५१ माह शु० ६ को दीक्षा दी और आपको उपाध्याय सोमविजयजी के शिष्य बनाये | कमल विजय आपका नाम रक्खा गया ।
[ तृतीय
वि० सं० १६५२ में सूरिसम्राट हीरविजयसूरि का स्वर्गवास हुआ और उनके पट्ट पर श्रीमद् विजयसेनमूरि विराजमान हुये । अकबर सम्राट् आपका भी बड़ा सम्मान करता था । सम्राट् ने आपको 'सूरसवाई' का पद पंडितपद और श्राचार्यपद प्रदान किया था । वि० सं० १६७० में 'सूरिसवाई' विजयसेनसूरि ने चरित्र नायक की प्राप्ति मुनि कमलविजय को उनकी प्रखर बुद्धि और विद्यानुराग को देखकर 'पंडित' पद प्रदान किया । वि० सं० १६७२ में 'सूरसवाई' का स्वर्गवास हो गया और विजयदेवसूरि उनके पट्ट पर विराजे | विजयदेवसूरि प्रखर बुद्धिमान् और तपस्वी थे । ये सागरपक्ष में जा सम्मिलत हुये । इससे तपागच्छ में भारी हलचल मच गई । उपाध्याय सोमविजय, भानुचन्द्र, सिद्धचन्द्र और चरित्रनायक ने इनको समझाने का बहुत प्रयत्न किया; प्ररन्तु कुछ सफलता प्राप्त नहीं हुई । निदान रामविजय नामक मुनिराज को वि० सं० १६७२ में आचार्यपद से सुशोभित करके स्वर्गस्थ आचार्य के पट्ट पर विराजमान किया और उनका विजयतिलकसूरि नाम रक्खा । वि० सं० १६७६ में विजयतिलकरि ने सिरोही ( राजस्थान) में आप श्री को महामहोत्सवपूर्वक श्राचार्यपद प्रदान किया और आपका नाम विजयाणंदसूरि रक्खा ।
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वि० सं० १६७६ में ही विजयतिलकसूरि का स्वर्गवास हो गया । और उनके पट्ट पर आपश्री विराजमान हुये; परन्तु विजयदेवसूरि के सागरपक्ष में सम्मिलित हो जाने का आपको दुःख हो रहा था । वि० सं० १६८० तक आपने मेवाड़ और मारवाड़-प्रदेशों में विहार किया। आपके साथ में आठ वाचक - मेघविजय, नन्दविजय, उपा० धनविजय, देवविजय, विजयराज, दयाविजय, धर्मविजय और सिद्धिचन्द्र और वाद में कुशल कई वादी पण्डित थे | सागरपक्ष के विरुद्ध आपने खूब प्रचार किया । मेवाड़ और मारवाड़ में अतः सागरपक्ष नहीं बढ़ सका। वि० सं० १६८१ में विजयदेवसूरि अहमदाबाद में विराजमान थे । सागरपच में पड़कर इन्होंने अनेक कष्ट
जै० गु० क० भा० १५० ५४४, ५४५ । जै० ऐ० रा०मा० भा० १ पृ० ३०
जै० गु० क० भा० ३ ० २ । जै० सा० सं० इति ० पृ० ५६८ (८३१)
ऐ० स० [सं० भा० ४ पृ० ८०. । ऐ० रा० सं० भा० ४ के अधिकार २ में सविस्तार वर्णन है । जै० गु० क० भा० २ पृ० ७४६ (६१)