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:: प्राग्वाट इतिहास ::
[ तृतीय
नाम कडुआागच्छ पड़ा । इस गच्छ के दूसरे आचार्य खीमाजी थे । इनके पिता कर्मचन्द्र प्राग्वाटज्ञातीय और पत्तननिवासी थे । इनकी माता का नाम कर्मादेवी था। श्री खीमाजी ने सोलह वर्ष की आयु में श्री कडुआ के करकमलों से भगवतीदीक्षा ग्रहण की थी । चौवीस वर्ष पर्यन्त इन्होंने साधु-पर्याय पाला और ७ वर्ष पर्यन्त ये पट्टधर रहे । ४७ सैंतालीस वर्ष की वय में सं० १५७१ में इनका पत्तन में स्वर्गवास हो गया । कडुआामत का इन्होंने खूब प्रचार किया । थराद (थिरपद्र) में इनके समय में कडुयामत के उपाश्रय की स्थापना हुई थी ।
श्री साहित्यक्षेत्र में हुए महाप्रभावक विद्वान् एवं महाकविगण
कविकुलभूषण कवीश्वर धनपाल विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी
वंश - परिचय
विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में जब कि गूर्जरेश्वर वीशलदेव का राज्य काल था गूर्जरप्रदेश के पालणपुर नामक प्रसिद्ध नगर में प्राग्वाटज्ञातिकुलशृंगार श्रे० भोवई नामक हो गये है । श्रे० भोवई अत्यन्त गुणवान्, दयाधर्मी एवं दृढ़ जिनेश्वरभक्त थे । श्रे० भोवई के सुहड़प्रभ नामक एक अति गुणाढ्य पुत्र था । सुहड़प्रभ की स्त्री का नाम सुहड़ादेवी था । कवि धनपाल का जन्म इस ही सौभाग्यशालिनी सुहड़ादेवी की कुक्षि से हुआ था । धनपाल से संतोषचन्द्र और हरिराज नामक दो और छोटे भ्राता थे ।
कवि धनपाल बड़ा प्रतिभाशाली पुरुष था । श्री कुन्दकुन्दाचार्य के अन्वय में सरस्वतीगच्छ में हुये भट्टारक श्री रत्नकीर्त्ति के पट्टधर श्रीप्रभाचन्द्रसूरि का वह शिष्य था और इनके पास में रह कर ही उसने विद्याध्ययन किया कवि धनपाल ‘कृतबाहुबलि- था । उक्त प्रभाचन्द्रसूरि फिरोजशाह तुगलक के राज्य-काल में, जो ई० सन् १३५१ चरित्र' वि० सं० १४०८ में शासनारूढ़ हुआ था हो गये हैं। इससे सिद्ध होता है कि कवि
'गुज्जरदेस - मज्झि पट्टणु, वसई विड़लु पाल्हापुर पट्टणु । वीसलएउ राउ पय-पालउ, कुवलय-मंडगु सयलु व मालउ । तह पुरवाड़वंश जायामल, अगणित पुव्वपुरिस विनिम्मल कुल । पुण हुउ राय सेट्ठि जिण-भत्तउ, भोवई णामे दयागुण - जुत्तउ | सुहडप्पउ तहो गंदणु जायउ, गुरु सज्ज हिंहं भुणि विक्खायउ ।” बाहुबलिचरित्र पत्र २ गुज्जर-पुरवाड़वंस- तिलउ, सिरि सुहड़ सेट्ठि गुणगणणि लउ । तहो मणहर छाया गेहणिय, सुहड़ा एवी णामे भणिय । तहो उवयरि जाउ बहु-विणमजुश्रो घरणवालु विसुउ खाभण हुआ। तहो विशिख तणुष्भव विउल-गुण, संतोषु तह हरिराजय पुरा । - बाहुबलिचरित्र के अंत में लिखित प्रशस्ति से
बाहुबलि चरित्र में प्रभाचन्द्रसूरि का वर्णन लिखते हुये धनपाल ने उनके पास में रह कर विद्याध्ययन करना स्वीकार किया है । 'संवत् १४१६ वर्षे चैत्र सुदि पंचम्या सोमवासरे सकलराज शिरोमुकुटमाणिक्यमरिचिपिंजरीकृत- चरणकमलपादपीठस्य पिरोज