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:: प्राग्वाट - इतिहास :
[ तृतीय
जैनाचार्यों का अक्षुण्ण प्रभाव रहा है। जैन धर्म की भी अन्य धर्मों के समान अच्छी उन्नति हुई और जीव- दया सम्बन्धी अनेक महान् कृत्य हुये । उपरोक्त आचार्यों एवं शासकों के मध्य रहे हुये अद्भुत एवं प्रभावक सम्बन्ध का प्रभाव गूर्जर भूमि पर भी अधिक पड़ा । खंभात जिसको खंभनगर, त्रंबावती, भोगवती, लीलावती, कर्णावती भी कहते हैं, उस समय गुर्जरभूमि में धर्म, व्यापार, साहित्य, सुख, समृद्धि की दृष्टि से प्रसिद्ध एवं गौरवशाली नगर था । इस नगर में अधिक प्रभावक, गौरवशाली, समृद्धज्ञाति जैन थी । जिसका प्रभाव समस्त गूर्जर भूमि पर था । खंभात पर जैनाचार्यों एवं शासकों का भी महत्त्वपूर्ण अनुराग था । फलतः खंभात में धर्मात्मा, साहित्यसेवी पुरुषों एवं विद्वानों का उत्कर्ष बढ़ा | कवीश्वर ऋषभदास खंभात में इसी उन्नत काल में हुये ।
महाकवि ऋषभदास का कुल वीशलनगर का रहने वाला था । इनके पिता सांगण खंभात में आकर रहने लगे थे । वे बृहत्शाखीय प्राग्वाटज्ञातीय थे । माहकवि के पितामह संघवी महिराज थे। महिराज वीशलनगर के कवि का वंश परिचय पिताप्रतिष्ठित पुरुषों में से थे । ये बड़े शीलवान्, उदार एवं परम दयालु दृढ़ जैन-धर्मी थे । मह संघवी महिराज और प्रातः बड़े सवेरे उठते थे और नित्य सांझ और सवेरे सामायिक, प्रतिक्रमण करते थे । पिता सांगण.
पूजा, प्रभावना आदि धर्मकार्य इनके जीवन के मुख्य अंग थे । अर्थात् ये शुद्ध बारहव्रतधारी श्वेताम्बर श्रावक थे। जैसे ये दृढ़ धर्मी एवं परोपकारी पुरुष थे, वैसे ही कुशल व्यवहारी भी थे । यद्यपि ये प्रथम श्रेणी के श्रीमंतों में नहीं थे, परन्तु मध्यम श्रेणी के श्रीमंतों में ये अधिक सुखी और समृद्ध थे । गिरनार, शत्रुंजय और अर्बुदाचलतीर्थो की इन्होंने यात्रायें की थीं और संघ भी निकाले थे । इनका पुत्र संघवी सांगण भी गुण और धर्म-कार्यों में इनके समान ही था । उस समय खंभात नगर जैसा ऊपर लिखा जा चुका है अति प्रसिद्ध नगर था । व्यापार, कला, समृद्धि में अद्वितीय था । दिनोंदिन इसकी उन्नति ही होती जा रही थी । वहाँ के व्यापारी भारत के बाहर जा कर व्यापार करते थे । उस समय के प्रसिद्ध बंदरगाहों में से यह एक था और यवन- बादशाहों का इस पर सदा प्रेम रहा। इन सब बातों के अतिरिक्त खंभात की प्रसिद्धि का मुख्य कारण एक और था । वहाँ का श्वेताम्बर - संघ प्रति प्रतिष्ठित, समृद्ध, गौरवशाली एवं महान् व्यापारी था। दिल्लीपति सदा खंभात के जैन - श्री संघ का मान रखते आये हैं । संघवी सांगण खंभात की इस प्रकार
'संघवी श्री महिराज बखाणू, प्रागवंश बड़ वीसोजी। समकीत सील सदाशय कहीई, पुष्प करे निस दीसोजी ॥ पड़कमणु ं पूजा परभावना, पोषध पर उपगाराजी । वीवहार शुद्ध चूके नहीं चतुरा, शास्त्र सुश्रर्थ विचारीजी' ॥
जीवविचार - रास सं० १६७६ 'प्रागवंसि बड़ो साह महीराज जे, संघवी तिलक सिरि सोय घरतो । श्री शत्रुब्जय गिरनारे गिरि श्राबूए, पुण्य जाणी बहु यात्रा करतो ॥ क्षेत्रसमास - रास सं० १६७८ 'प्रागवंशे संघवी महिराजे, तेह धरतो जिनशासन काजे । संघपति तिलक घरावतो सारो, शत्रुञ्जय पूजी करे सफल अवतारो ॥ समकित शुद्ध व्रत बारनो धारी, जिनवर पूजा करे नित्य सारी । दान दया धर्म उपर राग, तेह साधे नर मुक्तिनो माग' ॥ मल्लिनाथ - रास सं० १६८५
'सोय नयर वसि प्रागवास बड़ो, महिराज नो सुत ते सिंह सरिखो। तेह बावती नगर वासे रहघो, नाम तस संघवी सांगण पेखो' ||
'तास पुत्र छई नयन भलेरा, सांगण संघ गण्छ घोरी जी । संघपति-तिलक धराया तेराइ, बांधी पुण्यनी दोरी जी ॥ बार वरतना जे अधिकारी, दान शील तप धारी जी । भावि भगति करइ जिनकेरी, नवि नरखई परनारी जी' ॥
व्रतविचार - रास, कुमार पाल - रास.
समकितसार - रास सं० १६७८.