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:. प्राग्वाटज्ञातीय कुछ विशिष्ट व्यक्ति और कुल-कीर्तिशाली कोचर श्रावक::
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बना था कि अशरणशरण राणा हमीर ने अल्लाउद्दीन के दरबार से भाग कर आये हुये एक यवन को शरण दी थी। इस पर अल्लाउद्दीन अत्यन्त क्रोधित हुआ और उसने तुरन्त ही रणथंभौर के विरुद्ध सबल एवं विशाल सैन्य को भेजा। इस रण में हमारे चरित्रनायक कालूशाह ने बड़ी ही तत्परता एवं नीतिज्ञता से युद्ध का संचालन किया था। यद्यपि राजपूत-सैन्य संख्या में थोड़ी थी, परन्तु राणा हमीर अपने योग्य महाबलाधिकारी की सुनीतिज्ञता से अन्त में विजयी हुआ। उधर यवनशाही सेनापति प्रसिद्ध उलगखां मारा गया। उलगखां की मृत्यु एवं शाही पराजय से अल्लाउद्दीन को बड़ा दुःख हुआ। वि० सं० १३५८ ई. सन् १३०१ में स्वयं अल्लाउद्दीन अपनी पराक्रमी एवं सुसज्जित सैन्य को लेकर रणथंभौर पर चढ़ आया। इस बार युद्ध लगभग एक वर्ष पर्यन्त दोनों दलों में होता रहा । धीरे २ राणा हमीर के योद्धा मारे गये। यद्यपि यवन-सैन्य अति विशाल था और राजपूत-सैनिक हजारों की ही संख्या में थे । अन्त में महाबलाधिकारी कालूशाह और राणा हमीर अपनी थोड़ी-सी बची सैन्य को लेकर केसरिया वस्त्र पहिन कर जौहरव्रत धारण करके निकले और भयंकरता से रण करते हुये, यवनों को मृत्यु के ग्रास बनाते हुये समस्त दिवस भर भयंकर संग्राम करते रहे और अंत में घायल होकर वीरगति को प्राप्त हुये । इनके मरने पर राजपूत-सैना का साहस टूट गया और वह भाग खड़ी हुई। रणथंभौर पर यवनशासक का अधिकार हो गया । कालूशाह का नाम आज भी रणथंभौर में बड़े आदर के साथ लिया जाता है। कालूशाह की वीरता एवं कीति में अनेक कवियों ने बड़े २ रोचक कविच बनाये हैं। नीचे का एक प्राचीन पद पाठकों को उसकी वीरता एवं रणनिपुणता का परिचय देने में समर्थ होगा । *
'थम्भ दियो रणथम्भ के शूरो कालुशाह, पत राखी चौहाण की पड़ियो सेन अथाह ।
काली बज्र कर में धरी, खप्पर भरिया पूर, आठ सहस अड़सठ तणा यवन करिया चूर ।' संभव है यह पद कालूशाह की वीरमति के अवसर पर ही किसी बचे हुये योद्धा ने कहा है।
अहिंसाधर्म का सच्चा प्रतिपालक, जीवदयोद्धारक एवं शंखलपुर का कीर्तिशाली शासक कोचर श्रावक
विक्रम की चौदहवीं शताब्दी
ई. चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में और वि० चौदहवीं शताब्दी के मध्य में शंखलपुर नामक ग्राम में जो अणहिलपुरपत्तन से तीस मील के अंतर पर है, प्राग्वाटज्ञातीय बृहत्शाखीय वेदोशाह नामक एक अति उदार श्रीमन्त वेदोशाह और उसका पुत्र रहते थे । वेदोशाह की स्त्री का नाम वीरमदेवी था। इनके एक ही कोचर नामक पुत्र कोचर और उसका समय हुआ और वह बचपन से ही धर्मप्रवृत्ति, दयालु तथा शांतस्वभावी था। इस समय दिल्ली पर तुगलकवंश का शासन था । मुहम्मदतुगलक उद्भट विद्वान् एवं अत्यन्त भावुक-हृदय सम्राट् था ।
* श्री शिवनारायणजी की हस्तलिखित 'प्राग्वाट-दर्पण' से ।