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:: प्राग्वाट - इतिहास ::
[ तृतीय
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वह सर्व धर्मों का सम्मान करता था । विद्वानों एवं कवि तथा धर्मज्ञों का वह आश्रयदाता था । उसके दरबार में देश के प्रसिद्ध पण्डित एवं साधु रहते थे । वह विशेष कर जैनधर्म के प्रति अधिक आकृष्ट था। श्रावकों का अत्यन्त मान करता था। प्रसिद्ध जैनाचार्य जिनप्रभसूरि का वह परम भक्त था आदेश एवं सदुपदेश से सम्राट् मुहम्मद ने शत्रुंजय, गिरनार, फलोधी आदि प्रसिद्ध तीर्थों की रक्षा के लिये राज्याज्ञा प्रचारित की तथा अनेक स्थलों एवं पर्वो पर जीवहिंसायें बंद की। देवगिरिवासी संघपति जगसिंह तथा खंभातवासी संघपति समरा और सारंग की सम्राट् मुहम्मद तुगलक की राजसभा में अति मान एवं प्रतिष्ठा थी । सम्राट् के सामन्त एवं सेवक भी जैनधर्म का सत्कार करते थे तथा जैनाचार्यों एवं श्रावकों का बड़ा मान करते थे ।
वह जैन साधु एवं
इन जैनाचार्य के
शंखलपुर' के पास में बहिचर नामक ग्राम है । उस समय बहुचरा नामक देवी का वहाँ एक प्रसिद्ध स्थान था । इस देवी के मन्दिर पर प्रतिदिन हिंसा होती थी। कोचर जैसे दयालु श्रावक को यह कैसे सहन होता ? वह इस हिंसा को बंद करवाने का प्रयत्न करने लगा। कोचर आवक एक समय खंभात बहुचरा देवी और पशुबली गया हुआ था | एक दिन वह जैन- उपाश्रय में किसी प्रसिद्ध जैन आचार्य अथवा साधु महाराज का व्याख्यान श्रवण कर रहा था । उपयुक्त अवसर देखकर कोचर श्रावक ने बहुचर ग्राम में बहुचरादेवी के आगे होती पशुबली के ऊपर गहरा प्रकाश डाला और प्रार्थना की कि पशुबली को तुरन्त बन्द करवाने के लिये प्रयत्न करना चाहिये । व्याख्यान में खंभात के प्रसिद्ध श्रीमंत श्रेष्ठि साजणसी भी उपस्थित थे । साजणसी स्वयं परम प्रभावक एवं अति प्रसिद्ध श्रीमंत थे । इनके पिता सं० समरा अपने भ्रातृज सारंग के साथ मुहम्मद तुगलक की राज्य सभा में रहते थे । इस कारण से भी इनका मान और गौरव अधिक बढ़ा हुआ था । श्रीसंघ के ग्रह से इस कार्य में सहाय करने के लिये सं० साजणसी तैयार हुये ।
तुगलक सम्राट् की ओर से एक प्रतिनिधि (स्वादार) खंभात में रहता था, जो समस्त गुजराज पर शासन करता था । श्रावक कोचर एवं सं० साजणसी दोनों शाही प्रतिनिधि के पास गये ! शाही प्रतिनिधि सं० साजणसी कोचर की सम्राट के प्रतिनिधि का बड़ा मान करता था और उनको चाचा कह कर पुकारता था तथा बनता वहां तक से भेंट और कोचर का शंखल- सं० साजणसी की प्रत्येक प्रार्थना और आदेश को मान देता था । सम्राट् के प्रतिनिधि पुरका शासक नियुक्त होना ने सं० साजणसी और कोचर श्रावक का बहुमान किया । बहुचरा ग्राम में बहुचरादेवी के मन्दिर पर होती पशुवली ही बन्द नहीं की, वरन् श्रावक कोचर की जीवदया - भावना से अत्यन्त मुग्ध होकर
उसने श्रावक कोचर को शंखलपुर का शासक नियुक्त कर दिया ।
१ 'शंखलपुर' का वास्तविक नाम 'सलखणपुर' होना चाहिए ।
२ 'कोचर व्यवहारी रास' के आधार पर - जिसकी रचना तपागच्छनायक श्रीमद् विजय मेनसूरि के समय में डिसा नगर (गुजरात) में वि० सं० १६८७ आश्विन शु० ६ को कविवर कनकविजयजी के शिष्यवर कविवर गुणविजयजी ने की थी ।
'कोचररास' के कर्त्ता ने श्री सुमतिसाधुसूरि का नाम लिखा है। 'तपागच्छपट्टावली' के अनुसार ये आचार्य सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुये हैं और कोचर चौदहवीं शताब्दी के अंत में। दूसरी बात सं० समराशाह ने शत्रुंजय का संघ वि० सं० १३७१ में निकाला और उसके पुत्र साजणसी ने कोचर श्रावक को शंखलपुर का शासक बनाने में महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया का स्पष्ट उल्लेख है । त० प० भा० १५० २०२ प्र० ५४ वि० ती ० क० पृ० ५
तः स्पष्ट है कि उपरोक्त जैनाचार्य श्री सुमतिसाधुसूरि नहीं होकर कोई अन्य प्राचार्य थे । तथा 'वैक्रमे वत्सरे चंद्रहयाग्नीन्द्र (१३७१) मिते सती श्री मूलनायकोद्धार साधुः श्री समरो व्यधात् १२०' । 'श्रीमत् कुतुबदीनस्य राज्यलक्ष्म्या विशेषकः । ग्यासदीनाभिधस्तंत्र पातसाहिस्तदाऽभवत् ॥ ३२४ ॥ तेनातीव प्रमोदेन स्मरसाधु सगौरवम् । सन्मान्य खानवदयं पुत्रत्वे प्रत्यदद्यत ॥ ३२५ ॥ तब सं० समराशाह के पुत्र सं ० साजणसी का सम्मान खंभात का सम्राट् प्रतिनिधि करें, उसमें आश्चर्य ही क्या है ।
ना० न० प्र० पृ० १६५