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खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय को सेवा करने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ - श्रा० आलू :: [ ३३७
उज्ज्वलयशस्वी धांगा, बाबा, पुण्यशाली लखमसिंह और सज्जनाग्रणी रावण नामक चार पुत्र उत्पन्न हुये । श्रा० कडू ने तपागच्छनायक देवसुन्दरपरि के उपदेश से वि० सं० १४५१ श्रा० शु० ५ गुरु० को श्रीदेवेन्द्रसूरिकृत 'सुदर्शना - चरित्र' नामक ग्रन्थ लिखवाया और उसको अणहिलपुरपत्तन के ज्ञानभण्डार में स्थापित किया । १
श्राविका आसलदेवी वि० सं० १४५३
प्राग्वाटज्ञातीय व्य० आसा की धर्मपत्नी आसलदेवी ने अपने पुत्र व्य० श्राका, धर्मसिंह, वत्सराज, देवराज आदि और शिवराज आदि पौत्रों से युक्त हो कर तपागच्छनायक श्री देवसुन्दरसूरिगुरु के उपदेश से 'विशेषावश्यकवृत्ति (द्वितीय खण्ड)' वि० सं० १४५३ भाद्रपद कृ० १४ गुरुवार को श्री अणहिलपुरपचन में लिखवाई | २
श्राविका प्रीमलदेवी वि० सं० १९४५४
विक्रमीय पन्द्रहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय ठक्कुर काला स्तम्भतीर्थ में रहता था । उसकी धर्मपत्नी संभलदेवी नामा धर्मात्मा स्त्री थी । उनके भूभड़ नामक विश्रुत विशदबुद्धि पुत्र हुआ । भूभड़ का पाणिग्रहण महायशस्वी, अतिश्रीमंत, दानवीर गंग नामक व्यक्ति की धर्मपत्नी विशदशीला निःसीमरूपसमल्लक्ष्मी प्राग्वाटकुलावतंसा गउरदेवी की कुक्षि से उत्पन्न गुणाढ्य, सुशीला प्रीमलदेवी नामक पुत्री से हुआ ।
श्रीमदेवी ति धर्मप्राणा, सती स्त्री थी। उसने तपागच्छनायक देवसुन्दरसूरि का उपदेश श्रवण करके शीलाचार्यकृत 'सूत्रकृतांगटीका' नामक पुस्तक को वि० सं० १५५४ माघ शु० १३ सोमवार को कायस्थज्ञातिभूषण जाना के पुत्र मंत्रीप्रवर भीमा द्वारा स्तंभतीर्थ में बहुत द्रव्य व्यय करके लिखवाई | २
श्राविका आल्हू वि० सं० १४५४
स्तंभतीर्थाधिवासी प्राग्वाटज्ञातीय सुकृती धर्मात्मा श्रेष्ठि लाखण की धर्मपत्नी श्राल्हू नामा ने अपने पुत्र वणवीर, पुत्री चापलदेवी के सहित श्री देवसुन्दरसूरि का सदुपदेश श्रवण करके वि० सं० १४५४ में श्री पंचांगी - सूत्रवृत्ति' नामक ग्रंथ की प्रति अपने द्रव्य का सदुपयोग करके भक्ति-भावना पूर्वक ताड़पत्र पर लिखवाई | ४
१- जै० पु० प्र० सं० पृ० ४३, ४४ ता० प्र० ४२. D. C. M. P. (G. O. S. Vo. LXXVI.) P. 208 (341). २-जै० पु० प्र० सं०पृ ० १४१ प्र० ३२८ (विशेषावश्यकवृत्ति ). D. G. M.P. (G.O.S. Vo. LXXV1.)P. 238 (899) ३ - जै० पु० प्र० सं० पृ० ४४ ० ४३. D. C. M. P. (GO. S. Vo. LXXVI) P.260 (46) ४-प्र ० सं० भा० १ पृ० ७७-७८ ता० प्र० ११४ (पंचांगीसूत्रवृत्ति)