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प्राग्वाट-इतिहास:
[तृतीय
श्रेष्ठि हीरा वि० सं० १३३६
वि० सं० १३३६ आषाढ़ शु० प्रतिपदा रविवार को श्री महाराजाधिराज श्रीमत् सारंगदेव के विजयीराज्य के महामात्य श्री कान्हा के प्रबन्धकाल में प्राग्वाटज्ञातीय ठ० हीरा ने बृहत् श्री 'आदिनाथ-चरित्र' लिखवाया ।१
श्रेष्ठि हलण वि० सं० १३४४
विक्रमीय तेरहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय श्रे० गोगा की संतति में शाह सपून हो गया है। श्रे० सपून के शाह दुर्लभ, पाहड़, धनचन्द्र, वीरचन्द्र नामक चार पुत्र हुये । वीरचन्द्र के शा० मोल्हा, शा० जाहड़, शा. हेमसिंह, खेड़ा आदि पुत्र हुये। श्रे० खेदा के हलण, देवचन्द्र, कुमारपाल आदि पुत्र हुये । श्रे० हूलण ने वि० सं० १३४४ आश्विन शु० ५ को श्री कन्हर्सिसंतानीय श्री पद्मचंद्रोपाध्यायशिष्य श्रे० हेमसिंह के श्रेयार्थ अपनी पितृव्यभक्ति से 'श्री व्यवहारसिद्धान्त' नामक ग्रन्थ की तीन प्रतियाँ साकंभरीदेश में सिंहपुरी नामक नगरी के अधिवाशी मथुरावंशीय कायस्थ पंडित सांगदेव के द्वारा लिखवाई।२
श्रेष्ठि देदा वि० सं० १३५२
चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में दयावट नामक नगर में प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि कुमारसिंह हुआ है। वह प्रति धर्मात्मा और शुद्ध श्रावकव्रत का पालने वाला था। वैसी ही गुणवती, स्त्रीश्रृंगार कुमरदेवी नाम की उसकी धर्मपत्नी थी । कुमरदेवी की कुक्षि से पांच पुत्ररत्न उत्पन्न हुये-देदा, सांगण, केसा (किसा), धनपाल और अभय । देदा की स्त्री विशलदेवी थी । सांगण की शृंगारदेवी धर्मपत्नी थी। धनपाल की स्त्री का नाम सलषणदेवी था तथा कनिष्ठ अभय की धर्मपत्नी पाल्हणदेवी नामा थी । देदा के अजयसिंह नामक पुत्र था।
एक दिन देदा ने सुगुरु की देशना श्रवण की कि मनुष्य-जीवन का प्राप्त होना अति दुर्लभ है। इस दुर्लभ जीवन को प्राप्त करके जो सुखार्थी होते हैं वे धर्म की आराधना करते हैं। गृहस्थों के लिये दान-धर्म का अधिक महत्त्व माना गया है । यह दान-धर्म तीन प्रकार का होता है—ज्ञानदान, अभयदान और अर्थदान । इन तीनों दानों में ज्ञानदान का अधिकतम महत्त्व है । ऐसी देशना श्रवण करके देदा ने वि० सं० १३५२ में 'लघुवृत्तियुक्त उत्तराध्ययनसूत्र' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की एक प्रति ताड़पत्र पर लिखवाई और बड़े समारोह के मध्य एवं कुटुम्बीजनों की सादी में जैन-दीक्षा ग्रहण करके उपरोक्त प्रति को भक्तिपूर्वक ग्रहण की।३
१-जै० पु० प्र०सं० पृ०१३१ १०२६०(आदिनाथचरित्र) २-जै० पु०प्र०सं० पृ०१३२ प्र०२६१ (म्यवहारसूत्रटीका) ३-प्र०सं०भा०१पृ०३१ ता०प्र०३६ (उत्तराध्ययनसत्रलघुवृत्ति) जे०पु०प्र०सं० पृ०५७. ता०प्र० ५६ ( , )