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खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थ-श्रे० सज्जन आदि :: [ ३८१
श्रेष्ठि सज्जन और नागपाल और उनके प्रतिष्ठित पूर्वज
वि० सं० १३२२
तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अति विश्रुत एवं गौरवशाली प्राग्वाटज्ञातीय एक कुल में श्रेष्ठि सीद नामक दानवीर एवं कुलीन श्रीमन्त हुआ है। वीरदेवी नाम की उसकी सहधर्मिणी थी, जो अत्यन्त गुणवती, पुण्यशालिनी और शीलवती स्त्री थी । वह इतनी गुणाढ्या थी कि मानो वह कमला और विमला का रूप धारण करके ही मृत्युलोक में अवतरित हुई हो । ऐसे गुणवान् स्त्री-पुरुषों के एक पुत्र उत्पन्न हुआ । उसका नाम पुण्यदेव रक्खा गया ।
पुण्यदेव भी गुणों का कोष और सर्वथा दोषविहीन नरवर था । उसने श्रीमद् विजयसिंहसूरि के कर-कमलों से जिनबिंबों की प्रतिष्ठा करवाई और पुत्रद्वय को व्रत विधापन करवा कर अपनी आयु और लक्ष्मी को सार्थक किया । पुण्यदेव की स्त्री बाल्हिवि भी वैसी ही गुणवती, शीलवती, दृढ़धर्म-कर्मरता और जिनेश्वरदेव की परम भक्ता थी । दोनों स्त्री-पुरुषों ने अपने न्यायोपार्जित द्रव्य का सातों क्षेत्रों में प्रशंसनीय सदुपयोग किया, उग्रतपवाला उपधान नामक तप करवाया और श्रीमद् विजयसिंहसूरि की निश्रा में ये सर्व धर्मकार्य भक्ति भावपूर्वक सम्पन्न करवाकर अपना मालाधिरोपण कार्य महोत्सवपूर्वक पूर्ण किया । ऐसे धर्मात्मा स्त्री-पुरुषों के आठ पुत्ररत्न हुये । क्रमशः ब्रह्मदेव, वोहड़ी, बहुदेव, श्रामण, वरदेव, यशोवीर, वीरचन्द्र और जिनचन्द्र उनके नाम हैं ।
० पुण्यदेव का प्र० पुत्र श्रे० ब्रह्मदेव प्रति भाग्यशाली एवं वैभवपति हुआ । अपनी आज्ञानुकारिणी गुणगर्भा धर्मपत्नी पोइणी का साहचर्य पाकर उसने चन्द्रावती नामक प्रसिद्ध नगरी में जिनालय में भगवान् महावीर की प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई तथा श्रीमद् पद्मदेवसूरि के सदुपदेश से त्रिषष्ठिश्लाका चरित्र को लिखवा - कर लक्ष्मी का सदुपयोग किया ।
० पुण्यदेव के द्वितीय पुत्र श्रे० वोहड़ी को अपनी आंबी नामा स्त्री से विल्हण आल्हण, जाल्हण और मल्हण नामक चार पुत्रों की और एक पुत्री मोहिनी की प्राप्ति हुई । श्रे० पुण्यदेव के तृतीय पुत्र बहुदेव ने चारित्र - ग्रहण किया । वह कुशाग्रबुद्धि एवं बड़ा प्रतिभा संपन्न था। साधु-दीक्षा लेकर उसने समस्त जैन-शास्त्रों का अध्ययन किया तथा शुद्ध प्रकार से साध्वाचार का परिपालन किया । परिणामस्वरूप उसको गच्छनायक का पद प्राप्त हुआ और वह श्रीमद् पद्मदेवसूरि के नाम से विख्यात हुआ । श्रे० पुण्यदेव का चतुर्थ पुत्र श्रामण, पाँचवा पुत्र वरदेव भी उदार हृदयी और गुणवान् ही थे । छट्ठा पुत्र यशोवीर विद्वान् पंडित हुआ । उसने चारित्र-ग्रहण किया और अंत में सूरिपद प्राप्त करके वह परमानन्दसूरि नाम से प्रसिद्ध हुआ । सातवां पुत्र वीरचन्द्र और आाठवां पुत्र जिनचंद्र भी ख्यातनामा ही निकले ।
वोहड़ का ज्येष्ठ पुत्र विल्हण भी बड़ा ही धर्मात्मा हुआ । उसने अपने पिता की सम्पत्ति को अनेक धर्मकृत्यों में व्यय किया । विल्हण की स्त्री रूपिणी बड़ी ही धर्मपरायणा सती थी। उसके आसपाल, सीधू,
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