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: प्राग्वाट-इतिहास :
[ तृतीय
जगतसिंह और पद्मसिंह नामक चार पुत्र और वीरी नामा एक परम सुन्दरा मनोहरा, पवित्रा, सुशीला, सद्गुणाढ्या पुत्री उत्पन्न हुई। श्रे. वोहड़ि का द्वितीय पुत्र आल्हण भी भाग्यशाली एवं सौजन्यता का आगार था। तृतीय पुत्र जाल्हण भी अपने अन्य भ्राताओं के सदृश दृढ़ जैनधर्म-सेवक था। उसकी स्त्री नाऊदेवी थी। नाऊदेवी की कुक्षि से वीरपाल, वरदेव और वैरसिंह नामक तीन पुत्रों की उत्पत्ति हुई। श्रे० विल्हण के ज्येष्ठ पुत्र आसपाल को अपनी खेतूदेवी नामा स्त्री से सज्जनसिंह, अभयसिंह, तेजसिंह और सहजसिंह नामक चार पुत्रों की प्राप्ति हुई । - श्रे० आसपाल प्रसिद्ध पुरुष था। कवि आसड़ द्वारा वि० सं० १२४८ में रचित 'विवेकमंजरीप्रकरण' की प्रति, जिसकी वृत्ति श्री बालचन्द्राचार्य ने बनाई थी, उसने (आसपाल ने) वि० सं० १३२२ कार्तिक कृष्णा ८ को अपने पिता के पुण्यार्थ लिखवाई । इस प्रति के प्रथम एवं द्वितीय पृष्ठों पर श्री तीर्थकर भगवान् एवं प्राचार्य के सुन्दर चित्र हैं । आचार्य के चित्र में व्याख्यान-परिषद का सुन्दर चित्रण किया गया है तथा इसी प्रकार पृ० २३६, २४० पर एक २ देवी के मनोरम चित्र हैं। . विल्हण का द्वितीय पुत्र सीधू भी उदारमना श्रावक था। उसकी स्त्री सोहगा अति पुण्यवती दाक्षिण्यशालिनी
और परम स्वभाव-सुन्दरा रूपवती थी। विल्हण का तृतीय पुत्र जगतसिंह बचपन से ही विरक्त भावुक और उदासीनात्मा था। उसने चारित्र-ग्रहण किया और विद्या एवं तप में प्रसिद्धि प्राप्त करके सूरिपद को प्राप्त हुआ। विल्हण के चतुर्थ पुत्र पद्मसिंह को उसकी सद्गृहिणी वालूदेवी से नागपाल नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। . नागपाल परम बुद्धिमान् एवं सत्त्वगुणी पुरुषवर था । उसने श्रीमद् रत्नप्रभसूरि के सदुपदेश से हाड़ापद्रपुर में जिनालय बनवाया तथा उसमें सुमतिनाथबिंब की महामहोत्सवपूर्वक बहुत द्रव्य व्यय करके प्रतिष्ठा करवाई ।
वि० सं० १३२२ कार्तिक कृ. अष्टमी चन्द्रलग्न में श्रे० आसपाल के पुत्र सज्जनसिंह ने स्वपिता आसपाल के कल्याणार्थ 'विवेकमंजरीवृत्ति' नामक प्रसिद्ध धार्मिक ग्रन्थ की प्रति ताड़पत्र पर लिखवाकर ज्ञान की परम भक्ति की तथा लक्ष्मी का सदुपयोग कर अपना यश अमर किया। 'विवेकमंजरीवृत्ति' की प्रशस्ति का शोधन श्रीमद् पूज्य प्रद्युम्नमरि ने किया था।
वंशवृक्ष सीद [वीरदेवी]
पुण्यदेव (पूर्णदेव) [वान्हिवि]
आमण
वरदेव
। वीरचन्द्र
। जिनचन्द्र
ब्रह्मदेव वोहड़ी बहुदेव [पाइणी (पोहणी)] [बी] (पद्मदेवसरि)
यशोवीर (परमानन्दसरि)
प्र०सं०प्र० भा० पृ०३६, ४०,४१ ता०प्र०४५ (श्री विवेकमंजरीवृत्ति) जै० पु०प्र० सं० पृ० ३४.३५ प्र०३० (विवेकमंजरीप्रकरणवृत्ति) वंशा० प्रा० ता० ० ज्ञा० भ० की सूची पृ०६.