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खण्ड] :: श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-तपागच्छीय श्रीमद् विजयतिलकसूरि :: [ ३४५
करनी चाहिए। निदान परत, खंभात, बुरहानपुर, सिरोही आदि प्रसिद्ध नगरों के श्री संघों के अनुमति-पत्र मंगवाकर राजनगर में वि० सं० १६७३ पौ० शु० १२ बुधवार के दिन शुभ मुहूर्त में उपाध्याय सोमविजयजी, उपाध्याय नन्दीविजयजी, उपा० मेघविजयजी, वाचक विजयराजजी, उपा० धर्मविजयजी, उपा० भानुचन्द्रजी, कविवर सिद्धचन्द्रजी आदि विजयपक्ष के प्रसिद्ध साधुओं ने तथा अनेक ग्राम, नगर, पुरों से आये हुये श्री संघों ने तथा श्री संघों के अनुमति-पत्रों के आधार पर सबने एक मत होकर बृहद्शाखीय विजयसुन्दरसूरि के करकमलों से
आपश्री को आचार्यपदवी प्रदान की गई और स्व. विजयसेनसूरिजी के पट्ट पर आपको विराजमान किया और विजयतिलकसरि आपका नाम रक्खा । यह सरिपदोत्सव बड़ी ही सज-धज एवं शाही ठाट-पाट से किया गया था।
राजनगर से आप श्री विहार करके प्रसिद्ध नगर शिकन्दरपुर में पधारे । सम्राट् जहाँगीर के उच्च पदाधिकारी मकरुखान के सैनिक तथा कर्मचारियों ने अनेक श्रृंगारे हुये हाथी और घोड़ों के वैभवमध्य आपका नगर-प्रवेश बड़ी ही विजयतिलकसरिजी का श्रद्धा एवं भाव-भक्तिपूर्वक करवाया । सुवर्ण और चांदी की मुद्राओं से आपकी श्रावकों ने शिकंदरपुर में पदार्पण पूजा की और बहुत द्रव्य व्यय किया। वहाँ आपने पं० धनविजय आदि आठ मुनियों को वाचकपद प्रदान किया और समस्त तपागच्छ के प्रमुख व्यक्तियों का एक सम्मेलन करके प्रान्त-प्रान्त में आदेशपत्र भेजे । इस प्रकार विजयतिलकसरि गच्छमार को वहन करने लगे।
विजयपक्ष और सागरपक्ष में कलह दिनोंदिन अधिक बढ़ने लगा। इसके समाचार बादशाह जहाँगीर तक पहुंचे । मुगलसम्राट अकबर हीरविजयसूरि का बड़ा ही सम्मान करता था। उसी प्रकार उसका पुत्र जहाँगीर बादशाह जहाँगीर का दोनों भी तपागच्छीय इन सूरियों का बड़ा मान करता था । ऐसे गौरवशाली गच्छ में उत्पन्न पक्षो में मेल करवाना हुये इस प्रकार के कलह को श्रवण कर उसको भी अति दुःख हुआ और उसने अपने दरवार में दोनों पक्षों के प्राचार्य विजयतिलकसरि और विजयदेवसूरि को निमंत्रित किया। उस समय सम्राट माडवगढ़ में विराजमान था । उपयुक्त समय पर दोनों प्राचार्य अपने अपने प्रसिद्ध शिष्यों एवं साधुओं के सहित सम्राट जहाँगीर की राज्यसभा में मांडवगढ़ पहुँचे । सम्राट ने दोनों पक्षों की वार्ता श्रवण की और अन्त में दोनों को आगे से कलह तथा विग्रह नहीं करने की अनुमति दी। दोनों आचार्यों ने सम्राट के निर्णय को स्वीकार किया; परन्तु दो वर्ष पश्चात् पुनः कलह जाग्रत हो गया । दोनों प्राचार्य अलग २ अपना मत सुदृढ़ करने लगे और अपने २ पक्ष का प्रचार करने लगे।
वि० सं० १६७६ पौष शु० १३ को सिरोही (राजस्थान) में विजयतिलकसरिजी ने उपाध्याय सोमविजयजी के शिष्य कमलविजयजी को आचार्यपद प्रदान किया और उनका नाम विजयानन्दसरि रक्खा । दूसरे ही दिन
चतुर्दशी को आप स्वर्ग को सिधार गये । विजयतिलकसरि का मान तपगच्छ में हुये स्वर्गारोहण
साधु एवं आचार्यों में अधिक ऊंचा गिना जाता है। आपश्री धर्मशास्त्रों के अच्छे ज्ञाता और लेखक थे, परन्तु दुःख है कि अभी तक आपश्री की कोई उल्लेखनीय कृति प्रकाश में नहीं आई है।
ऐ०रा० सं० भा०४ । जै० गु० क० भा० २१०७४८ विजयतिलकसरिजी का पादुका-लेख वि० सं०१६७६ फा० शु०२ का सिरोही में है।