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खण्ड ]
:: श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-तपागच्छीय श्रीमद् विजयतिकलसूरि :: [ ३४३
तपागच्छीय श्रीमद् हेमसोमसूरि
दीक्षा वि० सं० १६३०. सूरिपद वि० सं० १६३६
पालणपुर के पास में धाणधार नामक प्रान्त में प्रग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि जोधराज की पत्नी रूढ़ी नामा की कुक्षि से वि० सं० १६२३ में आपका जन्म हुआ और हर्षराज आपका नाम रक्खा गया । वि० सं० १६३० में वंशपरिचय, दीक्षा और - बड़ग्राम में सोमविमलसूरि का पदार्पण हुआ । श्रे० जोधराज अपनी पत्नी और पुत्र द सहित गुरु को वंदनार्थ व ग्राम गया। उस समय हर्षराज की आयु आठ वर्ष की ही थी। उसने दीक्षा लेने की हठ ठानी और बहुत समझाने पर भी उसने अपनी हठ नहीं छोड़ी। अंत में दीक्षा लेने की आज्ञा देनी पड़ी और धूम-धाम सहित सोमविमलसूरि ने हर्षराज को विशाल समारोह में साधु-दीक्षा प्रदान की और हेमसोम नाम रक्खा । वि० सं० १६३५ में तेरह वर्ष की वय में ही आपको पंडितपद प्राप्त हुआ । सं० लक्ष्मण ने पंडितपदोत्सव का आयोजन किया था। एक वर्ष पश्चात् ही वड़ग्राम के श्री संघ ने भारी महामहोत्सवपूर्वक वि० सं० १६३६ में श्रीमद् सोमविमलसूरि के करकमलों से पं० हेमसोम को सूरिपद प्रदान करवाया। इस सूरिमहोत्सव में अधिक भाग श्रे० लक्ष्मण ने ही लिया था । चौदह वर्ष की बालवय में सूरिपद का प्राप्त होना आपके पतिभासम्पन्न, बुद्धिमान्, तेजस्वी एवं शुद्धसाध्वाचार तथा गच्छमार संभालने के योग्य होने जैसे आप में स्तुत्य गुणों के होने को सिद्ध करता है । साधन-सामग्री के अभाव में आपका अधिक वृत्तान्त देना अशक्य है।
तपागच्छीय श्रीमद विजयतिलकसूरि
दीक्षा वि० सं० १६४४. स्वर्गवास वि० सं० १६७६.
विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में गुजरात- प्रदेश के प्रसिद्ध नगर वीशलपुर में प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि देवराज रहता था । उसकी स्त्री का नाम जयवंती था । दोनों स्त्री-पुरुष धर्मप्रेमी एवं उदारमना थे । इनके रूपजी और रामजी नाम दो पुत्र थे। दोनों का जन्म क्रमशः वि० सं० १६३४ और वंश - परिचय और दीक्षा १६३५ में हुआ था । उन दिनों में खंभात श्रति प्रसिद्ध और गौरवशाली नगर था । जैन समाज का नगर में अधिक गौरव एवं मान था । खंभात में श्रोसवालज्ञातीय पारखगोत्रीय राजमल और विजयराज नामक दो धनाढ्य भाई रहते थे । उन्होंने विम्बप्रतिष्ठा करवाने का विचार किया । श्रीमद् हीरविजयसूरिजी की आज्ञा से श्राचार्य विजयसेनसूरि बिम्बप्रतिष्ठा करवाने के लिये खंभात में पधारे। आप श्री का नगर
*जै० गु० क० भा० २ पृ० ७४७ (५८)