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प्राग्वाट-इतिहास:
(तृतीय
: प्रतिष्ठानपुर से आपने तुरन्त मारवाड़ की ओर विहार किया और सादड़ी में जाकर जगद्गुरु के दर्शन किये । परीश्वर ने उपाध्यायजी से कहा कि विजयसेनमुनि को सूरिपद दिया गया है। अतः उनकी आज्ञा में सूरीश्वर से भेंट और विराट-, चलना और गूर्जरभूमि में विहार करके धर्म की प्रभावना करना, जिससे शासन की नगर में प्रतिष्ठा सेवा होगी और गच्छ का गौरव बढ़ेगा। तत्पश्चात् हीरविजयसूरि ने दिल्ली की ओर प्रयाण किया । उपाध्याय कल्याणविजयजी गुरु के दिल्ली से लौटने तक मारवाड़ में ही विहार करते रहे । जगद्गुरु हीरविजयसूरि सम्राट अकबर से मिलकर, भारी संमान प्राप्त करके लौटे और नागोर में पधारे । उपाध्यायजी महाराज भी नागोर पहुँचे और गुरु के दर्शन करके तथा दिल्ली राज-दरबार में मिले संभान को श्रवण करके अत्यन्त प्रसन्न हुये । नागोर में विराटनगर के शाही अधिकारी संघपति इन्द्रराज ने आकर जिनालय की प्रतिष्ठा करने की विनती की । गुरुमहाराज ने उपाध्याय कल्याणविजयजी को विराटनगर में जिनालय की प्रतिष्ठा करवाने की आज्ञा दी। संघपति अत्यन्त प्रसन्न हुआ और जब उपाध्याय श्री का विराटनगर में आगमन हुआ तो उसने भारी महोत्सव करके उनका नगर-प्रवेश करवाया । शुभमुहुर्त में प्रतिष्ठाकार्य करके मूलनायक विमलनाथ प्रभु की प्रतिमा स्थापित की तथा सं० इन्द्रराज ने अपने पिता भारहमल के भेयार्य श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा और पुत्र अजयराज के श्रेयार्थ श्री आदिनाथप्रभु की और मुनिसुव्रतस्वामी की प्रतिमायें उपाध्यायजी के पवित्र कर-कमलों से प्रतिष्ठित करवाई। सं० इन्द्रराज ने बहुत द्रव्य व्यय करके संघ की पूजा की और साधर्मिक-वात्सल्य किया । विराटनगर से विहार करके आप गूर्जरभूमि में पधारे । खंभातवासी सं० उदयकरण ने वि० सं० १६५५ मार्ग क० २ सोमवार को श्रीमद् विजयसेनसरि द्वारा सिद्धाचल पर श्रीमद् विजयहीरसूरिजी की पादुका स्थापित करवाई, उस समय आप भी उपस्थित थे। धर्म की इस प्रकार प्रभावना करते हुये योग्य अवस्था प्राप्त करके इन्हीं दिनों में आप स्वर्ग को पधारे । आपके प्रशिष्य-शिष्य उपा. यशोविजयजी वर्तमान युग में प्रसिद्ध महाविद्वान् हुये हैं ।।
१-जै० ऐ० रासमाला पृ० ३२ (कल्याणविजयगणि) 1- " , पृ० २१४ (कल्याणविजयगणि नो रास)
शिष्य-परंपरा:जगद्गुरु हीरविजयसूरि उपाध्याय कल्याणविजय
पं० लाभविजयगणि
जीतविजय
नवविजय
उपाध्याय यशोविजय ४-D.C. M. P. (G. O. S. Ve. No. CXVI.) P.1 (नयचक्र की पत्तन-भंडार की पुस्तक के प्रारम्भ में) ५-श्री यशोविजयकृत ३५० गाथा की प्रशस्ति के आधार पर ६-जै० गु० क० भा०२० २०, २१ (२६०)