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खण्ड ]
: श्री जैन श्रमण-संघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-अंचलगच्छीय मुनिवर मेघसागरजी ::
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इन्होंने १ नाभिवंशकाव्य, २ यदुवंशसंभवकाव्य, ३ नेमिदूतकाव्य आदि काव्य लिखे। एक नवीन व्याकरण और सरिमंत्रकल्प तथा अन्य ग्रंथों की भी रचना की हैं, जिनमें शतपदीसमुद्धार, लघुशतपदी (वि० सं० १४५० में) कंकालय रसाध्याय प्रसिद्ध हैं। इस प्रकार अनेक धर्मकार्य एवं साहित्यसेवा करते हुये, करवाते हुये आप श्री का स्वर्गवास वि० सं १४७१ में जीर्णदुर्ग में हुआ ।
श्रीमद् उपाध्याय वृद्धिसागरजी दीक्षा वि० सं० १६८०. स्वर्गवास वि० सं० १७७३
मरुधरप्रदेश के कोटड़ा नामक नगर में प्राग्वाटज्ञातीय जेमलजी की श्रीदेवी नामा स्त्री की कुक्षि से वि० सं० १६६३ चैत्र कृ. पंचमी को वृद्धिचन्द्र नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। सत्रह वर्ष की वय में वृद्धिचन्द्र ने श्रीमद् मेघसागर उपाध्याय के पक्ष में वि० सं० १६८० माघ कृ. द्वितीया को दीक्षा ग्रहण की और उनका वृद्धिसागर नाम रक्खा गया । मुनि वृद्धिसागर को योग्य समझ कर मेड़ता नगर में उपाध्यायजी महाराज ने उनको उपाध्यायपद वि० सं० १६६३ कार्तिक शु० पंचमी को प्रदान किया। वि० सं० १७३३ ज्येष्ठ शु० तृतीया को श्रीमद् मेघसागरजी उपाध्याय का बाहड़मेर में स्वर्गवास होगया । संघ ने महामहोत्सवपूर्वक उपाध्याय वृद्धिसागरजी को स्वर्गस्थ उपाध्यायजी के पट्ट पर विराजमान किया। दीर्घायु पर्यन्त जैन-शासन की सेवा करके तथा ११० वर्ष का दीर्घायु भोग कर आप वि० सं० १७७३ आषाढ़ शु० सप्तमी को अपने पट्ट पर उपाध्याय हीरसागरजी को मनोनीत करके नलीया नामक ग्राम में स्वर्ग को सिधारे । श्रीमद् हीरसागर एक महाप्रभावक उपाध्याय हुये हैं ।।
अंचलगच्छीय मुनिवर मेघसागरजी
वि० शताब्दी सत्रहवीं के उत्तरार्ध में प्रभासपत्तन नामक प्रसिद्ध नगर में जो अरबसागर के तट पर बसा हुआ है और जहाँ का वैष्वणतीर्थ सोमनाथ जगद्विख्यात् है, प्राग्वाटज्ञातीय सज्जनात्मा श्रे० मेघजी रहते थे। वे दयावान्, उपकारी, सरल हृदय, सत्यभाषी, गुरु और जिनेश्वरदेव के परम भक्त थे। श्रावक के बारह व्रतों का वे बड़ी तत्परता एवं नियमितता से अखंड पालन करते थे। बचपन से ही वे उदासीन एवं विरक्तात्मा थे। धीरे २ उन्होंने संसार की असारता और धन, यौवन, आयु की नश्वरता को पहिचान लिया और निदान अंचलगच्छीय श्रीमद् कल्याणसागरसूरि के करकमलों से भगवतीदीक्षा ग्रहण करके इस असार, मोहमायामयी संसार का त्याग किया। वे मेघसागरजी नाम से प्रसिद्ध हो कर कठिन तपस्या करके अपने कर्मों का क्षय करने लगे। वे श्रीमद् रत्नसागरजी उपाध्याय के प्रिय शिष्य थे; अतः उक्त उपाध्यायजी की निश्रा में रह कर ही उन्होंने जैनागमों एवं
१-म०प० पृ० ३६५। २-म०प० पृ० २६३