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खण्ड ] :: श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक चाचार्य और साधु - लोकागच्छीय मुनिश्री इच्छाजी ::
इस असार संसार का त्याग करके दीक्षाव्रत अंगीकार किया । अब मुनि संघराज शास्त्राभ्यास में खूब मन लगाकर तीव्र अध्ययन करने लगे। थोड़े ही वर्षों में आपने शास्त्रों का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया । वि० सं० १७२५ माघ शु० १४ शुक्रवार को अहमदाबाद में बड़ी धूमधाम से आपको पूज्यपद से अलंकृत किया गया । आचार्य संघराजजी बड़े ही तपस्वी एवं कठिन साध्वाचार के पालक थे । आपका स्वर्गवास वि० सं० १७५५ फा० शु० ११ को प्रसिद्ध नगर श्रागरा में हुआ । स्थानकवासी - सम्प्रदाय के ये चौदहवें श्राचार्य थे ।
ऋषिशाखीय श्रीमद् सोमजी ऋषि विक्रमीय सत्रहवीं शताब्दी
श्री लवजी ऋषि ने लोकागच्छ का त्याग करके अपना अलग गच्छ स्थापित किया था। इनके अनेक सुयोग्य शिष्य थे । उनमें सोमजी ऋषि भी थे और वे प्रमुख थे। श्री लवजी ऋषि को अपने जीवन में अनेक कष्ट भुगतने पड़े थे। श्री सोमजी उनके अधिकांश कष्टों में सहभोगी, सहयोगी रहे थे । श्री सोमजी कालुपुट ग्राम के दशा प्राग्वाटज्ञातीय थे और तेवीस २३ वर्ष की वय में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी। बुरहानपुर में श्री लवजी ऋषि अपनी शिष्य-मण्डली के सहित एक वर्ष पधारे थे। श्री सोमजी भी आपके साथ में थे। लोकागच्छ के एक यति की प्रेरणा से श्री लवजी ऋषि को आहार में विष दे दिया गया, जिससे उनकी मृत्यु हो गई। गुरु की मृत्यु से श्री सोमजी को बड़ा दुःख पहुँचा । 'सोमजी के कानजी और पंजाबी हरदासजी नामक दो बड़े ही तेजस्वी शिष्य थे । पंजाबी हरदासजी का परिवार इस समय पंजाबी - संप्रदाय के नाम से विख्यात है, जो अति ही उन्नतावस्था में है और कानजी ऋषि का संप्रदाय मालवा, मेवाड़ में और गूर्जर भूमि में फैला हुआ है। श्री सोमजी ऋषि ऋषिसंप्रदाय के प्रमुख संतों में हुये हैं । १
श्री लीमड़ी-संघाडे के संस्थापक श्री अजरामरजी के प्रदादा गुरु श्री इच्छाजी दीक्षा वि० सं० १७८२. स्वर्गवास वि० सं० १८३२.
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विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में गूर्जर भूमि के प्रसिद्ध नगर सिद्धपुर में प्राग्वाटज्ञातीय जीवराजजी नामक श्रेष्ठि संघवी रहते थे । उनकी स्त्री का नाम बालयबाई था । उनके इच्छाजी नामक तेजस्वी पुत्र था | इच्छाजी बचपन से ही वैराग्य भावों में लीन रहते थे । साधु-सेवा और शास्त्र - श्रवण से आपको बड़ा प्रेम था । आप ने वि० सं० १७८२ में साधु-दीक्षा अंगीकार की और अपनी आत्मा का कल्याण करने लगे । आपने अनेक भविजनों को साधु-दीक्षायें प्रदान की थीं। उनमें हीराजी, नाना कानजी और अजरामरजी अधिक प्रख्यात थे। लींबड़ी - संघाड़े के संस्थापक श्री अजरामरजी पूज्य ही कहे जाते हैं। श्री इच्छाजी का स्वर्गवास वि० सं० १८३२ में लींबड़ी नगर में हुआ था । २
१ - जै० गु० क० भा० ३ ० २५० २२१६-१७
२ - जै० गु० क० भा० ३ ० २५० २२१६