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:: श्री जैन श्रमण-संघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु - खरतरगच्छीय कविवर समयसुन्दर :: [ ३६७
खरतरगच्छीय कविवर श्री समयसुन्दर वि० सं० १६३०. से वि० सं० १७००
विक्रमीय सत्रहवीं शताब्दी यवन-शासनकाल में स्वर्ण-युग कही जाती है। इसी शताब्दी में लोकप्रिय, नीतिज्ञ, उदार, वीर एवं धीर सम्राट् अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ हुये हैं। ये ही सम्राट् समस्त यवनकाल के कविवर समयसुन्दर और नभ में जगमगाते रवि और चन्द्र ही नहीं, उसके मस्तिष्क, वक्ष और रीड भी ये ही उनका समय तथा वंश हैं । इनके अभाव में समस्त यवनकाल पाशविक, घृणास्पद, अवांछनीय और भार और गुरु परिचय स्वरूप है | शेरशाह सूर अवश्य एक ध्रुव तारा है। ऐसे लोक-प्रिय सम्राटों के समय में धर्म, समाज, साहित्य, कला-कौशल, व्यापार-वाणिज्य की उन्नति होना स्वाभाविक है । कविवर समयसुन्दरजी इसी समय में हुये हैं । इनका जन्म साचोर (मारवाड़) में लगभग वि० सं० १६२० में प्राग्वाटज्ञातीय कुल में हुआ और लगभग वि० सं० १६३० या १६३२ के आपकी दीक्षा बृहत् खरतरगच्छ में हुई । उस समय खरतरगच्छीय जिनचन्द्रसूरि अधिक प्रख्यात एवं नामांकित आचार्य थे। उनके ६६ प्रसिद्ध शिष्य थे । इन प्रसिद्ध शिष्यों में प्रथम शिष्य सकलचन्द्र उपाध्याय के कविवर समयसुन्दर शिष्य थे। शत्रुंजयमहातीर्थ का सत्रहवां उद्धार करवाने वाला महामंत्री कर्मचन्द्र बच्छावत जिनचन्द्रसूरि का अनन्य भक्त था । उसका सम्राट् अकबर की राजसभा में अतिशय मान था । सम्राट् अकबर ने कर्मचन्द्र के मुख से सूरीश्वर जिनचन्द्र की प्रसिद्धि सुन कर, उनको राज्जसभा में निमंत्रित किया था । उस समय जिनचन्द्रसूरि गुर्जर - प्रदेश में विचरण कर रहे थे । वे निमंत्रण पाकर वहाँ से खाना हुये और जाबालिपुर (जालोर - राजस्थान) में आकर चातुर्मास किया । तदनन्तर वहाँ से विहार करके मेड़ता, नागौर होते हुये लाहौर पहुँचे । कविवर समयसुन्दर भी आपके साथ में थे । सम्राट् अकबर ने जिनचंद्रसूरि का भारी संमान किया और 'युगप्रधान ' पद प्रदान किया सम्राट् युवानमुनि कविवर समयसुन्दर की बुद्धि, प्रतिभा एवं चारित्र को देख कर अति मुग्ध हुआ । वि० सं० १६४६ फाल्गुण शु० २ को सम्राट् अकबर के कहने के अनुसार युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि ने मुनि मानसिंह को आचार्यपद और कविवर समयसुन्दर तथा गुणविनय को उपाध्यायपद प्रदान किये। यह पदोत्सव महामंत्री कर्मचन्द्र बच्छावत ने बहु द्रव्य व्यय करके शाही धूम-धाम से किया था ।
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निवृत्त पुरुषों के प्रमुख दो ही कार्य होते हैं। आध्यात्मिक जीवन और साहित्य-सेवा । वि० सत्रहवीं शताब्दी एक शान्त और सुखद शतक था। इन दोनों प्रकार के कार्यों के उत्कर्ष के लिये भी शान्त और सुखद वातावरण चाहिए । फलस्वरूप वि० सत्रहवीं शताब्दी में धर्माचार्यों की प्रतिष्ठा रही और साहित्य में भी अतिशय उत्कर्ष हुआ । उत्कृष्ट संत-साहित्य इसी काल की देन है । सर्व धर्मों के चारित्रवान् एवं विद्वान् धर्माचार्यों का उत्कर्ष बढ़ा और सर्व देशी भाषाओं में नव साहित्य का सर्जन चरमता पर पहुंच गया । महाकवि तुलसीदास,
मध्याह्नपद्धति
'प्रज्ञा प्रकर्षः प्राग्वाटे इति सत्यं व्यधायियैः येषां हस्तात् सिद्धिः संताने शिष्य शिष्यादः । अष्टलक्षानर्थानेकपदे प्राप्य ये तु निर्यथाः संसारसकलसुभगाः विशेषतः सर्वराजानाम् ॥