________________
३६४]
प्राग्वाट-इतिहास:
[तृतीय
श्री पार्श्वचन्द्रगच्छ-संस्थापक श्रीमद् पार्श्वचन्द्रसूरि दीक्षा वि० सं० १५४६. स्वर्गवास वि० सं० १६१२
अर्बुदगिरि की पश्चिमीय उपत्यका में हमीरगढ़ नामक प्रसिद्ध पुर में प्राग्वाटज्ञातीय वेलोशाह रहते थे। उनकी स्त्री का नाम विमलादेवी था। चरित्रनायक इन्हीं के पुत्र थे। हमीरगढ़ यद्यपि पार्वतीय भूमि में बसा हुआ था,
फिर भी वह अति सम्पन्न एवं समृद्ध नगर था । वहाँ साधु मुनिराजों का आवागमन वंश-परिचय
बराबर रहता था। अर्बुदतीर्थ के कारण भी आवागमन में अधिक वृद्धि हो गई थी। सोलहवीं, सत्रहवीं शताब्दियों तक इस दुर्ग की जाहोजलाली बनी रही।
चरित्रनायक ने नव वर्ष की वय में, जिनका जन्म वि० सं० १५३७ चैत्र शु० नवमी शुक्रवार को हुआ था श्रीबृहत्तपागच्छीय नागोरीशाखीय श्रीमद् साधुरत्नमरि के करकमलों से वि० सं० १५४६ वैशाख शु० नवमी
_ को साधु दीक्षा ग्रहण की । आपका नाम मुनि पार्श्वचन्द्र रखा गया । आप कुशाग्रबुद्धि दीक्षा और उपाध्याय-पद
५ थे अतः अल्प समय में ही अच्छे निष्णात पंडित हो गये । आपकी तर्कशक्ति प्रबल थी। उस समय वाद अधिक होते थे। आपने अनेक वादों में जय प्राप्त की। फलस्वरूप वि० सं० १५५४ में सत्रह वर्ष की वय में ही आपके दादागुरु श्रीमद् पुण्यरत्नसूरि ने आपको उपाध्यायपद से नागोर (नागपुर) में महामहोत्सवपूर्वक विभूषित किया । उपाध्यायपदोत्सव भोसवालज्ञातीय छजलाणीगोत्रीय श्रे० सहसाशाह की ओर से आयोजित किया गया था ।
कुछ शताब्दियों से साध्वाचार शिथिल होता चला आ रहा था। अनेक विद्वान् श्राचार्यों ने इस शिथिलाचार को मिटाने के लिये भगीरथ प्रयत्न किये थे । उपाध्याय पार्श्वचन्द्र ने भी इस शिथिलाचार को नष्ट करने की
प्रतिज्ञा की। वि० सं० १५६४ में आप क्रियोद्धार करने पर तत्पर हुये और शिथिलाकियोद्धार और सरिपद
चार का विरोध करने लगे। वि० सं० १५६५ में आपको जोधपुर नगर में श्रीमद् पुण्यरत्नसरि के शिष्य विजयदेवसूरि के समक्ष श्री संघ ने सरिपद प्रदान किया।
उस समय के साधुओं के शिथिलाचार को देखकर आपने जो क्रियोद्धार किया था, उसके फलस्वरूप आपको अनेक कष्ट सहन करने पड़े थे। श्रीमद् साधुरत्नसूरि आपका बड़ा मान करते थे । यहाँ तक कि आपके दिखाये हुये
__ मार्ग पर ही चलते थे । परन्तु अन्य बृहत्तपागच्छीय साधुओं के साथ विरोध और पार्थचन्द्रगच्छ की स्थापना
ईर्ष्या बढ़ती ही गई । आपने इसकी कुछ भी परवाह नहीं की। फलस्वरूप वि० सं० १५७२ में अलग होकर आपने श्री पार्श्वचन्द्रगच्छ की स्थापना की और आप अपने मत का प्रचार कोंकण, सौराष्ट्र, गुजरात, मालवा, मेवाड़ और मरुधर-प्रान्तों में भ्रमण करके करने लगे।
हमीरगढ़ सिरीही-राज्य में है। सिरोही से नैऋत्यकोण में मील के अन्तर पर, सिंदरथ से दक्षिण नैऋत्य में ३ मील के अन्तर पर, हणाद्रा से ईशानकोण में १३ मील के अन्तर पर, मेडा से ईशानकोण में ३ मील के अन्तर पर मीरपुर नामक ग्राम है। इस ग्राम से पूर्व दिशा में एक मील के अन्तर पर हम्मीरगढ़ का प्रसिद्ध ऐतिहासिक दुर्ग अबु दगिरि के पश्चिमीढ़ाल की उपत्यका में वसा हुआ है। इस दुर्ग के तीन ओर पहाड़ और एक ओर मैदान है।
हम्मीरगढ़ प्र०२ पृ०४ जै० गु० क० मा०१ पृ०१३९,१५२ (टिप्पणी)
ऐ०रा०सं०भा०११०११-१६