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खण्ड]
:: श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक श्राचार्य और साधु-अंचलगच्छीय श्रीमद् सिंहप्रभसूरि ::
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शुक्रवार को सिनोर (गुजरात) नामक नगर में आपने दीक्षा ग्रहण की और आपका दीक्षा-नाम सुविधिविजय रक्खा गया । दैवयोग से सिनोर में उसी वर्ष वि० सं० १८१४ चैत्र शु० १० को श्रीमद् विजयसौभाग्यसूरि का स्वर्गवास हो गया । स्वर्गवास के एक दिन पूर्व स्वर्गस्थ आचार्य की मृत्यु निकट आई हुई समझ कर तथा मृत्यु-शय्या पर पड़े हुये प्राचार्य की अभिलाषा को मान देकर सिनोर के श्रीसंघ ने वि० सं० १८१४ चैः शु०६ गुरुवार को महामहोत्सव पूर्वक आपको आचार्य पदवी से अलंकृत किया और आपका नाम विजयलक्ष्मीसरि रक्खा गया। आचार्यपदोत्सव श्रे० छीता वसनजी और श्रीसंघ ने किया था।
विजयमानसूरि के स्वर्गवास पर उनके पाट पर दो आचार्य अलग २ पट्टधर बने थे-विजयप्रतापमूरि और विजयसौभाग्यसूरि । विजयसौभाग्यसूरि के स्वर्गवास पर आपश्री पट्टधर हुये । वि० सं० १८३७ पौ० शु०१० को जब विजयप्रतापपरि के पट्टधर विजयउदयसूरि का भी स्वर्गवास हो गया तब दोनों परम्परा के साधु एवं संघों ने मिल कर वि० सं० १८४६ में आपश्री को ही विजयउदयसरि के पट्ट पर विराजमान किया । ऐसा करके दोनों परम्पराओं को एक कर दिया गया । मरुधरप्रान्त के पालीनगर में वि० सं० १८६६ में आपका स्वर्गवास हो गया ।
इनका बनाया हुआ संस्कृतगद्य में 'उपदेशप्रासार' * नामक सुन्दर ग्रंथ है। इस ग्रन्थ में ३६० हितोपदेशक व्याख्यानों की चौवीस स्तंभों (प्रकरण) में रचना है। इस ग्रंथ के बनाने का लेखक का प्रमुख उद्देश्य यही था कि व्याख्यान-परिषदों में व्याख्यानदाताओं को व्याख्यान देने में इस ग्रंथ से उपदेशात्मक वृत्तान्त सुलभ रहें। और भी कई ग्रन्थ इनके रचे हुये सुने जाते हैं ।*
अंचलगच्छीय श्रीमद् सिंहप्रभसूरि दीक्षा वि० सं० १२६१. स्वर्गवास वि० सं० १३१३
गूर्जरप्रदेशान्तर्गत वीजापुर नामक नगर में प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि अरिसिंह की धर्मपत्नी प्रीतिमती की कुचि से वि० सं० १२८३ में सिंह नामक पुत्र का जन्म हुआ। सिंह जब पांच वर्ष का हुआ उसके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया । अनाथ सिंह का पालन-पोषण उसके काका हराक ने किया । एक वर्ष वीजापुर नगर में वल्लभीशाखीय श्रीमद् गुणप्रभसूरि बड़े आडम्बर से पधारे। सिंह के काका हराक ने विचार किया कि सिंह को आचार्यमहाराज को भेंट कर दूं तो इसका धन मेरे हाथ लग जायगा। लोभी काका ने बालक सिंह को गुणप्रभसरि को भेंट कर दिया । गुणप्रभसूरि ने सिंह को आठ वर्ष की वय में वि० सं० १२९१ में दीक्षा दी और सिंहप्रभ उनका नाम रक्खा । मुनि सिंहप्रभ अल्प समय में ही शास्त्रों का अभ्यास करके योग्य एवं विद्वान् मुनि बन गये ।
जैन पुस्तक १, अंक ७, सं०१६८२ पृ०२५१ से २५३ जै० गु. क. भा०२ पृ०७५२ * उक्त ग्रंथ जैनधर्म-प्रसारक सभा, भावनगर की ओर से प्रकाशित हो चुका है।