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प्राग्वार्ट-इतिहास: .
[ तृतीय
प्रवेश शाही सज-धज से किया । वि० सं० १६४४ में जिनबिंध-प्रतिष्ठा महामहोत्सव पूर्वक बड़ी धूम-धाम से पूर्ण हुई। इस प्रतिष्ठोत्सव में अनेक समीप एवं दूर के नगर, पुर, ग्रामों से छोटे-बड़े श्रीसंघ और अनेक जैनपरिवार आये थे। वीशलनगर से श्रेष्ठि देवराज भी अपनी पत्नी और दोनों प्रिय पुत्रों को लेकर आया था । देवराज को यहाँ वैराग्य उत्पन्न हो गया और उसने अपने दीक्षा लेने के विचार को अपनी अनुगामिनी धर्मपरायणा स्त्री जयवंती से जब कहा तो उसने भी दीक्षा लेने की अपनी भावना प्रकट की। उस समय तक दोनों पुत्र भी क्रमशः पाठ और नव वर्ष के हो चुके थे। वे भी अपने माता, पिता को दीक्षा लेते देखकर दीक्षा लेने के लिये हठ करने लगे । अन्त में समस्त परिवार को शुभ मुहुर्त में श्रीमद् विजयसेनसूरि ने साधु-दीक्षा प्रदान की । रूपजी
और रामजी के क्रमशः साधुनाम रत्नविजय और रामविजय रक्खे गये । इन दोनों बाल-मुनियों को सूरिजी ने विद्याभ्यास में लगा दिये । दैवयोग से बालमुनि रत्नविजय का थोड़े ही समय पश्चात् स्वर्गवास हो गया । मुनि रामविजय उपाध्याय सोमविजयजी की संरक्षणता में विद्याध्ययन करते रहे । सूरिजी ने आपको कुछ वर्षों पश्चात् पण्डितपद प्रदान किया।
___ तपागच्छाधिपति श्रीमद् विजयदानमूरिजी के पट्टालंकार जगद्विख्यात् श्रीमद् विजयहीरसूरिजी और प्रखर विद्वान् स्वतंत्र विचारक उपाध्याय धर्मसागरजी में 'कुमतिकुद्दाल' नामक ग्रंथ को लेकर विग्रह उत्पन्न हो गया। मापन की उत्पत्ति उपाध्यायजी 'कुमतिकुदाल' ग्रन्थ की मान्यता के पक्ष में थे और सरिजी विरोध में ।
और पं० रामविजयजी को दोनों में कभी मेल हो जाता और कभी विग्रह बढ़ जाता। यह क्रम इसी प्रकार चलता प्राचार्यपद
रहा । तपागच्छ में इस विग्रह के कारण दो पक्ष बन गये-विजयपक्ष और सागरपक्ष । श्रीमद् विजयदानसूरिजी ने जब पक्षों के कारण गच्छ की मान-प्रतिष्ठा को धक्का लगने का अनुभव किया, उन्होंने 'कुमतिकुद्दाल' ग्रन्थ को जलशरण करवा दिया और उपाध्याय धर्मसागरजी को समझा-बुझा कर गच्छ में पुनः लिया। उपाध्याय धर्मसागरजी अलग विचरण करके पुनः 'कुमतिकुद्दालग्रंथ' की मान्यतानुसार अपना अलग पंथ चलाने लगे। किसी भी प्रकार फिर भी विजयहीरसूरि सहन करते रहे और उधर उपाध्याय धर्मसागरजी ने भी कभी गच्छ के टुकड़े करने के लिये प्रबल प्रयत्न नहीं किया। दोनों की मृत्यु के पश्चात् जो लगभग साथ साथ ही घटी विजयपक्ष और सागरपक्ष में एक दम द्वंद्वता बढ़ गई। श्रीमद् विजयहीरसूरि विजयसेनसरि इस बढ़ती हुई द्वंद्वता को दबाने में असमर्थ रहे । वि० सं० १६७२ ज्ये० कृ० ११ को विजयसेनसरि का स्वर्गारोहण हुआ और तत्पश्चात् विजयदेवसरि गच्छनायकपद को प्राप्त हुये । ये आचार्य सागरपक्ष में सम्मिलित हो गये। ।। इस पर विजयपक्ष
खलभली मच गई । विजयपक्ष में प्रमुख साधु उपाध्याय सोमविजयजी ही थे। इन्होंने अन्य प्रमुख साधुओं को, प्रतिष्ठित श्रेष्ठियों को साथ लेकर विजयदेवसूरिजी को अनेक बार समझाने का प्रयत्न किया । परन्तु संतोषजनक हल कभी नहीं निकला । अंत में हार कर विजयपक्ष ने अपना संमेलन किया और निश्चित किया कि हीर-परम्परा का अस्तित्व रखने के लिये किसी नवीन आचार्य की स्थापना
में वही वलभली
ऐ०रा० सं० भा० ४ पृ०२,३,४. ऐ० रा० सं० भा० ४ (निरीक्षण) पु० ५६,१३,१४,१५,१६,१७,१८, २१, २२. ऐ०रा०सं०भा०४ प०७२,७३ तथा (निरीक्षण) प० २२,२३