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:: प्राग्वाट-इतिहास:
[ तृतीय
श्रीपुंज के अनेक सुभट और विश्वासपात्र सामंत कर्मचारी उपस्थित थे। उस शुभावसर पर उटकनगरवासी श्रे० शकान्हड़ ने सातों क्षेत्रों में पुष्कल द्रव्य व्यय करके तपस्या ग्रहण की, श्री जिनमण्डनमुनि को वाचक-पद प्रदान किया गया । इस प्रतिष्ठोत्सव के शुभावसर पर साधु गोविन्द ने याचकों को स्वर्ण-जिह्वायें प्रदान की थीं। इन्द्रसभा के समान विशाल मण्डप की रचना करवाई गई थी। बड़े २ साधर्मिक वात्सल्य किये गये थे। सधर्मी बन्धुओं को केशरिया रेशमी अमूल्य वस्त्रों की पहिरामणी दी गई थी। इस प्रकार उसने बहुत द्रव्य व्यय करके अमर यश और कीर्ति प्राप्त की । उत्सव के समाप्त हो जाने पर श्रे० गोविन्द गुरुवर्य श्रीमद् सोमसुन्दरसरि के साथ में ईडर पाया । श्रीपुंज राजा ने नगर-प्रवेश का भारी महोत्सव किया और नगर को शृंगार कर संघ ने अपनी गुरु-भक्ति का एवं साधु गोविन्द के प्रति अपनी सम्मान दृष्टि का परिचय दिया।
अनुक्रम से विहार करते हुये गच्छनायक सूरीश्वर मेदपाटप्रदेशान्तर्गत श्री देवकुलपाटक नगर में पधारे । देवकुलपाटक में बागहड़ी में जिनप्रासाद का करवाने वाला धर्ममूर्ति सुश्रावक श्रे० निंब रहता था, जो अपनी देवकुलपाटक में श्रीभुवनसुन्दर- धर्मक्रिया एवं महोदारता के लिये दूर २ तक प्रख्यात था। उसने गुरु की आज्ञा. वाचक को सूरिपद देना लेकर आचार्यपदोत्सव का विशाल आयोजन किया । दूर २ के संघों को निमन्त्रित किया और पुष्कल द्रव्य व्यय करके मण्डप की रचना करवाई। गच्छनायक ने श्री भुवनसुन्दरवाचक को शुभ मुहूर्त में महामहोत्सव एवं महासमारोह के मध्य सूरिपद प्रदान किया। संघवी निंब ने गच्छपति को एवं अन्य साधुवर्ग को अमूल्य वस्त्र अर्पित किये एवं सधर्मी बन्धुओं की साधर्मिकवात्सल्यों से और अमूल्य वस्त्रों की पहिरामणी से अच्छी संघभक्ति की।
अनुक्रम से विहार करके गच्छाधिराज श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि कर्णावती में पधारे । कर्णावती में साधु-आत्मा श्रे० गुणराज रहता था, जो अहम्मदशाह बादशाह का अत्यन्त माननीय विश्वासपात्र श्रेष्ठि था। गुणराज की कर्णावती में पदार्पण और राज्य और समाज में भारी प्रतिष्ठा थी। गुरु का शुभागमन श्रवण करके गुणराज ने श्रे० छाम्र की दीक्षा नगर-प्रवेश की भारी तैयारियाँ की और बड़ी धूम-धाम से गुरु का नगर प्रवेश करवाया
और दानादि में पुष्कल द्रव्य व्यय किया। श्रे० गुणराज का आम्र नामक एक अति धनपति श्रावक मित्र था। वह श्रीमंत पिता का पुत्र था। श्रे० आम्र भी अत्यन्त सरल, सज्जनात्मा साधु-गृहस्थ था । योग्य गुरु के दर्शन करके श्रे० आम्र के हृदय में वैराग्य भावनायें उत्पन्न हो गई और निदान एक दिन शुभ मुहुर्त में घर, परिवार, अतुल संपत्ति का त्याग करके उसने गच्छपति श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि के कर-कमलों से भगवतीदीक्षा ग्रहण की। मरिजी महाराज संघ के आग्रह से वहाँ कई दिन तक विराजे और श्री शत्रुजयतीर्थ के माहात्म्य का संघ को श्रवण करवाया। साधु गुणराज ने अनेक महोत्सव किये और दीक्षोत्सव में तथा अन्य उत्सव महोत्सवों में उसने अनंत धनराशि का सदुपयोग करके समकितरत्न की प्राप्ति की।
जैसा ऊपर कहा जा चुका है सं० गुणराज अति प्रसिद्ध पुरुष था। वह अति धनवान् था और वादशाह महम्मदशाह का मानीता श्रेष्ठि था । दीदोत्सव समाप्त हो जाने के पश्चात् उसने महातीर्थों की संघयात्रा करने गच्छपति के साथ में सं० का विचार किया । गुरुदेव की स्वीकृति प्राप्त करके सं० गुणराज ने संघयात्रा की गुणराज की शत्रुञ्जयमहा- तैयारियाँ प्रारम्भ की। बादशाह अहमदशाह से राजाज्ञा प्राप्त की। बादशाह ने तीर्थ की संघयात्रा
अपने कृपापात्र सं० गुणराज को अमूल्य वस्त्रालंकार भेंट किये और संघ की रक्षार्थ