________________
३३२ ।
:: प्राग्वाट-इतिहास :
[तृतीय
को तृप्त करने वाला एक विशाल जिनबिंब ६३ तिरानवे अंगुल मोटा करवा कर शुभमुहूर्त में चित्तौड़ के श्री श्रेयांसनाथ-जिनालय में प्रतिष्ठित करवाया तथा फिर आचार्यपदोत्सव का दूसरा समारम्भ रच कर गच्छनायक के करकमलों से पंडितवर्य श्रीमद् जिनकीर्तिवाचक को रिपद प्रदान करवाया। इसी अवसर पर प्राचार्य श्री सोमसुन्दरसूरि ने कितने ही मुनियों को पण्डितपद और कितने ही श्रावकों को दीक्षायें प्रदान की थीं। इन दोनों महोत्सवों में श्रे० चम्पक ने १७७ दूर २ के नगर, ग्रामों के संघों को कुकुमपत्रिकायें प्रेषित करके उनको निमंत्रित किया था । पुष्कल द्रव्य व्यय करके उसने भारी साधर्मिक-वात्सल्य किये, याचकों को बहु द्रव्य दान में दिया तथा प्रत्येक सधर्मी बंधु को तीन २ अमूल्य वस्तुयें भेंट में दीं और इस प्रकार अपने पिता के तुल्य कीर्ति प्राप्त करके कुल का गौरव बढ़ाया।
श्रे. चंपक की विधवा माता सुश्राविका खीमादेवी ने पंचमी का उद्यापन किया। जिसमें उसके दोनों पुत्र श्रे० धीर और चंपक ने सुवर्ण, रत्न और रुपयों की भेंटें दीं और विशाल साधर्मिक वात्सल्य किया और अतिशय संघ-भक्ति की।
तत्पश्चात् धर्म-मूर्ति चंपक ने सुगुरु श्रीमद् सोमसुन्दरमरि से समकितरत्न ग्रहण किया और इस हर्ष के उपलक्ष में दूर २ के संघों में प्रति घर पांच सेर अति स्वादिष्ट मोदक की लाहणी (लाभिणी) वितरित करवाई।
श्री धरणाशाह के प्रकरण में आपश्री की अधिनायकता में श्री शत्रुजयतीर्थ की की गई संघयात्रा का वर्णन तथा श्रीराणकपुरतीर्थसंबन्धी यथासंभव अधिकतर वणन दे दिया गया है। यहाँ इतना ही लिखना पर्याप्त होगा कि श्री राणकपुरतीर्थ-धरण- गच्छनायक ने देवकुलपाटक से विहार करके सं० रत्ना एवं धरणाशाह की विनती को मान विहार की प्रतिष्ठा देकर श्री राणकपुर की ओर विहार किया और श्री राणकपुर में पहुँच कर सं० धरणाशाह द्वारा विनिर्मित काष्ठमयी चौरासी स्तंभवाली पौषधशाला में आपश्री अपनी योग्य साधुमण्डली सहित विराजे और मंदिर के निर्माणकार्य का अधिकांश भाग अपनी उपस्थिति में विनिर्मित करवाया तथा वि० सं० १४६८ में फाल्गुण कृ. ५ शुभ मुहूर्त में उसको अति राजसी सज-धज एवं महाशोभाशाली विविध रचनायें करवा कर उसको प्रतिष्ठित किया और मूलगर्भगृह में चारों दिशाओं में अभिमुख चार विशाल श्री आदिनाथबिंबों की स्थापना की। उसी महोत्सव के शुभावसर पर श्री सोमदेववाचक को सूरिपद से अलंकृत किया।
आपश्री के द्वारा किये गये सर्व कृत्यों का लेखन इतिहास में स्थानाभाव के हेतु कर भी नहीं सकते हैं, फिर भी विविध धर्मकृत्यों का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है:
___ देवकुलपाटक में देवगिरिवासी श्रीमंत श्रावक द्वारा आयोजित महामहोत्सव के साथ श्री मुनि रत्नशेखरवाचकवयं को सूरिपद प्रदान किया ।
श्रे० गुणराज के सुयोग्य पुत्र बाला ने चितौड़दुर्ग में कीर्तिस्तंभ के सामीप्य में चार विशाल देवकुलिकाबाला जिनालय विनिर्मित करवाया और उसमें उसने तीन जिनबिंबों की प्रतिष्ठा गच्छनायक भीमद् सोमसुन्दरसूरि के कर-कमलों से महामहोत्सवपूर्वक पुष्कल द्रव्य व्यय करके करवाई।