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खण्ड]
:: श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक श्राचार्य और साधु-तपागच्छीय श्रीमद् हेमविमलसूरि ::
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आपश्री के समय में आपश्री के प्रभाव एवं प्रताप, सहाय, योग, लगन, तत्परता से जो धर्मोन्नति एवं साहित्योन्नति हुई वह स्वर्णाक्षरों में उपलब्ध है और वह काल सोमसुन्दर-युग' कहा जाता है तो उचित ही है ।
ऐसे प्रतापी राजराजेश्वरमान्य सूरिसम्राट् प्रातः स्मरणीय गच्छपति का स्वर्गवास वि० सं० १४६६ में हुआ और वह अभाव आज तक अपूर्ण ही रहा ।१
तपागच्छाधिराज श्रीमद् हेमविमलसूरि दीक्षा वि० सं० १५३८. स्वर्गवास वि० सं० १५८४
मरुधर प्रान्तान्तर्गत बड़ग्राम में विक्रमीय सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि गंगराज२-३ रहता था। उसकी स्त्री गंगाराणी थी। वि० सं० १५२२ कार्तिक शु० १५ को उन्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति वंश-परिचय और दीक्षा हुई और उसका नाम हादकुमार रक्खा गया। हादकुमार बचपन से ही विरक्तभावुक था। तथा प्राचार्यपद सोलह वर्ष की वय में तपागच्छाधिपति श्रीमद् लक्ष्मीसागरसूरि के कर कमलों से उसने वि० सं० १५३८ में दीक्षा ग्रहण की । उसका नाम हेमधर्ममुनि रक्खा गया । हेमधर्ममुनि प्रखरबुद्धि और गंभीर विद्याभ्यासी थे। आपने थोड़े वर्षों में ही अनेक ग्रंथों का अच्छा अध्ययन कर लिया। आपकी विद्वत्ता से प्रसन होकर श्रीमद् लक्ष्मीसागरसूरि के पट्टालंकार श्रीमद् सुमतिसाधुसरि ने महामहोत्सव पूर्वक पंचालसग्राम में कि सं० १५४८ में श्रापको आचार्यपद प्रदान किया। यह उत्सव श्रीमालज्ञातीय श्रेष्ठि पाताक ने किया था। हेम. विमलसूरि आपका नाम रक्खा गया । वि० सं० १५५० में देवदर के स्वप्नानुसार खंभात के संघ के साथ में आपने शत्रुजयतीर्थ की यात्रा की । वि० सं० १५५२ में खंभात में श्रेष्ठि सोनी बीवा, जागा द्वारा आयोजित प्रतिष्ठोत्सव-कार्य महामहोत्सव पूर्वक किया तथा उसी अवसर पर मुनि दानधीर को सूरिपद प्रदान किया । प्राचार्य दानधीर छः माह जीवित रह कर स्वर्गस्थ हो गये । हेमविमलमूरि कठोर तपस्वी और शुद्ध साध्वाचारी थे। उस समय में साध्वाचार अति शिथिल पड़ चुका था। अनेक महातपस्वी विद्वान् आचार्य शिथिलाचार को नष्ट करने का प्रयत्न कितने ही वर्षों से करते आ रहे थे। आपने शिथिलाचार को नष्ट करने का एक प्रकार से संकल्प किया । आपकी निश्रा में जो साधु शिथिलाचारी थे और शुद्ध साध्वाचार पालने में असमर्थ एवं अयोग्य रहे, आपने उनको संघ से बहिष्कृत कर दिया। श्राप निःस्पृही एवं अखण्ड ब्रह्मचारी थे। वि० सं० १५५२ में आपने क्रियोद्धार किया और वि० सं० १५५६ में ईडरनगर में आपको गच्छनायकपद से संघ ने अलंकृत किया। गच्छनायक-पदोत्सव कोठारी सायर और श्रीपाल ने बड़े धूम-धाम से बहुत द्रव्य व्यय करके किया था। ईडर-नरेश रायभाण आपका प्रशंसक का । उसने भी इस महोत्सव में सराहनीय भाग लिया था।
१-सौमसौभाग्य काव्य २-जै० सा० सं इतिः पृ० ४५१ से ४७१। तपागच्छपट्टावली सूत्रम् प०स०। २-ऋषभदेव कृत हीरसरिरास पृ० २६५ पर लिखा है कि ये प्राग्वाटज्ञातीय थे। ३-वीर वंशावली। २-जैन गुर्जर क० भा०२ पृ०७२३ (टि५ ५५) ७४३,७४४।३०प००२०२ ..