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प्राग्वाट-इतिहास :
[तृतीय
संघपति मूलवा की श्री अर्बुदगिरितीर्थ की संघयात्रा
वि० सं० १६२१ विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में अहमदाबाद में प्राग्वाटज्ञातीय संघवी गंगराज अहमदाबाद के अति संमानित प्रमुख व्यक्तियों में था। उसके सं० जयवंत नामक पुत्र था। सं• जयवंत की स्त्री मनाईदेवी नामा थी। जयवंत की विमाता जीवादेवी की कुक्षी से सं० मूलवा (मूलचन्द्र) नाम का पुत्र हुआ । संघवी मूलचन्द्र उदार
और धर्मात्मा था । वह तीर्थयात्रा का बड़ा प्रेमी था। उसने वि० सं० १६२१ माघ कृ. १० शुक्रवार को श्री तपागच्छाधिपति श्री कुतुबपुरीयपक्षगच्छवाले श्री हंससंयमसूरि के शिष्य श्री हंसविमलसरि के उपदेश से श्री अर्बुदगिरितीर्थ की यात्रा करने के लिये संघ निकाला और इस प्रकार संघाधिपतिपद को प्राप्त करके अपनी स्त्री रंगादेवी, पुत्र मूला, भला, मघा तथा संघवी हरिचन्द्र, भाई सीदा, संघवी भीमराज के पुत्र बब (१) के पुत्र नारायण आदि समस्त कुटुम्बसहित और सकलसंधयुक्त श्री अर्बुदतीर्थ की यात्रा करके उसने अपने मनोरथ को सफल किया ।*
श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु
तपागच्छाधिराज आचार्यश्रेष्ठ श्रीमद् सोमतिलकसूरि
दीक्षा वि० सं० १३६६. स्वर्गवास वि० सं० १४२४ तपागच्छपट्ट पर ४७ सेंतालीसवें श्रीमद् सोमप्रभसूरिद्वितीय के पट्ट पर ४८ अड़तालीसवें श्रीमद् सोमतिलकसरि नामक आचार्य हो गये हैं। इनका जन्म प्राग्वाटज्ञातीय कुल में वि० सं० १३५५ के माघ महीने में हुआ था । इन्होंने १४ चौदह वर्ष की वय में वि० सं० १३६६ में भगवतीदीक्षा ग्रहण की थी। सोमतिलकमरि श्रीमद् सोमप्रभसूरि के प्रिय एवं प्रभावक साधुओं में थे। सोमप्रभसूरि के पट्टोत्तराधिकारी युवराज-प्राचार्य श्रीमद् विमलप्रभसूरि का जब असमय में स्वर्गवास हो गया तो वि० सं० १३७३ में सोमप्रभसूरि ने सोमतिलकसरि और परमानन्दसूरि दोनों को आचार्यपदवी प्रदान की। परमानन्दसूरि का भी अल्प समय में ही स्वर्गवास हो गया। सोमप्रभसूरि के स्वर्गवास पर सोमतिलकसरि गच्छनायकपद को प्राप्त हुये ।
__ श्रीमद् सोमतिलकसरि अत्यन्त उन्नत और विशाल विचारों के प्राचार्य थे । इनके विशाल विचारों के कारण अन्य गच्छाधिपति भी इनका भारी मान करते थे। खरतरगच्छीय जिनप्रभसूरि ने स्वशिष्यों के पठनार्थ रचे हुये ७०० स्तोत्रों के संग्रह को सम्मान पूर्वक इनको समर्पित किया था । इनके श्री पद्मतिलकसरि, श्री चन्द्रशेखरसूरि, श्री जयानन्दसूरि और श्री देवसुन्दरसूरि नामक प्रखर विद्वान् एवं प्रतापी शिष्य थे। इन्होंने अपने उक्त चारों शिष्यों को बड़ी धूमधाम से एवं महोत्सवपूर्वक आचार्यपद प्रदान किया था। पद्मतिलकसूरि का तो आचार्यपद प्राप्ति के एक वर्ष पश्चात ही स्वर्गवास हो गया था । चन्द्रशेखरसूरि को वि० सं० १३६३ में आचार्यपद दिय
*० प्रा० जै० ले० सं० भा०२ ले०१६