________________
....
: प्राग्वाट-इतिहास ::
[द्वितीय
धवलकपुर की राजसभा में वस्तुपाल तेजपाल को निमंत्रण और वस्तुपाल द्वारा
महामात्यपद तथा तेजपाल द्वारा दण्डनायकपद को ग्रहण करना
वीरधवल एवं तेजपाल में पूर्व परिचय था१ । राजगुरु सोमेश्वर वस्तुपाल के सहपाठी थे और उसके दिव्य गुणों एवं उसकी विद्वत्ता पर मुग्ध थे । महामण्डलेश्वर लवणप्रसाद भी दोनों भ्राताओं के दिव्य गुणों से, उनकी बुद्धिप्रतिभा से, वीरता, निडरता से पूर्ण परिचित हो चुके थे। वैसे दोनों भ्राता गुर्जरभूमि के प्रसिद्ध अमात्य चंडप के वंशज थे अतः उनकी कीर्ति को प्रसारित होने में अधिक समय नहीं लगा। अब वि० सं० १२७६ में गुर्जरसाम्राज्य के शासन-संचालन का भार पाकर राणक लवणप्रसाद और युवराज वीरधवल योग्य मंत्रियों की शोध में अधिक चिंतित तो थे ही । वस्तुपाल, तेजपाल इन पदों के लिये उनको सर्व प्रकार से योग्य प्रतीत हुये । राजगुरु सोमेश्वर की भी यही इच्छा थी कि उक्त दोनों भ्राताओं के हाथों में गुर्जरभूमि का शासनसूत्र समर्पित किया जाय । राजगुरु सोमेश्वर के प्रयत्नों से वि० सं० १२७६ में एक दिन दोनों भ्राता राजसभा में निमंत्रित किये गये । राणक लवणप्रसाद ने दोनों भ्राताओं से अमात्यपद तथा दंडनायकपदों को स्वीकृत करने के लिये कहा३ । इस पर चतुर नीतिज्ञ वस्तुपाल ने कहा-'राजन् ! चापलूश एवं चाटुकारों की सदा राजा और महाराजाओं के यहाँ पटती आई है । अगर आप यह वचन देते हैं कि हमारे विरोध एवं हमारी निंदाओं में कही गई झूठी चर्चाओं की ओर कान और ध्यान नहीं देंगे तथा अगर कुपित होकर कभी हमको राज्यपदों से अलग भी करेंगे तो जो तीन लक्ष
१-'प्राग्वाटवंश .............."तत्रायात तेजःपालमंत्रिणा सह सौहार्दमुत्पेदे ।' प्र०चि०१८३) पृ०६८ (कु० प्रबंध) २-'देव्यानिवेदितौ मंत्रिपुङ्गवौ यो भवतपुरः। राजव्यापारधीरेयौ न्यायशास्त्रविचक्षणौ ॥२८॥ द्वासप्ततिकलादक्षौ, सर्वदर्शनवत्सलौ । जिनेन्द्रधर्मधौरेयौ, पुरुषोत्तमसचिभौ ॥२६।। शत्रुजयोज्जयंतादौ, यात्रा कृत्वाऽत्र साम्प्रतम् । राजसेवार्थमायातौ पुरा तौ मिलितौ मम ॥३०॥" 'ततो नृपयुगादेशं, समासाद्य पुगेधसा । तयो समीपमानीतौ तौ विनीतौ सुसंवृतौ ॥३२ व० च० प्रस्ताव प्र०पृ०७
'अथान्यदा श्रीवीरधवलदेवेन निजव्यापारभारायाभ्यर्थ्यमानःप्राक-स्वसौधे तं सपत्नीकं भोजयित्वा श्रीअनुपमा राजपल्यै श्रीजयतलदेव्यै निज कपूरमयताडङ्कयुग्मं करमयो मुक्ताफलस्वर्णमयमणिश्रेणिभिरंतरिताभिनिष्पन्नमेकावलीहारं प्राभृतीचकार । मंत्रिणः प्राभृतमुपढौकित निषिध्य निजमेवं व्यापार समर्पयन्, 'यत्तवेदानी वर्त्तमानं वित्तं तत्ते कुपितोऽपि प्रतीतिपूर्व पुनरेवाददामीति' अक्षरपत्रान्तरस्थबन्धपूर्वकं श्री तेजःपालाय व्यापारसम्बन्धिनं पञ्चाङ्गप्रसादं ददौ ।'
प्राच०१८५) पृ०६८-६९ (व० ते० प्रबंध१०) ३-'भूमिभतुरथ कर्तुमिच्छतस्तस्य सत्पुरुषसंग्रहं श्रिये । एकदा हृदयमागताविमौ दीप्तशीतकिरणाविवाम्बरम् ॥५१॥' 'पुरस्कृत्य न्यायं खलजनमनाहत्य सहजानरीनिर्जित्य श्रीपतिचरितमाश्रित्य च यदि । समुर्दतु' धात्रीमभिलषसि तस्यैष शिरसा धुतो देवादेशः सटमपरथा स्वस्ति भवते ॥७७।। सचिववचनमेतच्चेतसा सोत्सवेन क्षितितलतिलकोयं कृत्स्नमाकर्ण्य सम्यक । भकृतकनकमुद्राकान्तिकिजल्कसान्द्रं करसरसिजयुग्मं मंत्रियुग्मस्य तस्य ॥७८।'
की० कौ० सर्ग०३ पृ० २८ 'इमौ ग्रन्थान्धिमन्थानौ पन्थानौ श्रीसमागमे । तुभ्यं समर्यपिष्यामि मंत्रिणौ तौ तु मित्रयोः ॥५७॥ सु० सं० सर्ग०३ पृ०२६ 'विद्येते हृद्यविद्यौ तदनु तदनुजौ धीनिधिवस्तुपालस्तेजःपालब तेजस्तरणितरुणिमस्फुतिरोचिष्णुमृत्तीं। श्रीमन्नेतौ निजश्रीकरणपदकृतव्याप्ती प्रीतियोगात्तुभ्यं दास्यामि विश्वं जयतु नवनवं धाम तन्मन्त्रमित्रम् ॥५०॥
ह०म० म० परि० प्र० पृ०६३ (व० ते. प्र.) 'तदिम मौलिषु मौलि कुरुषे पुरुषेशः सकलसचिवानाम् । क्षितिधवः तत्तव दोष्णोविष्णोरिव भवति विश्रामः||११||'
है० म०म० परि० प्र० त० ८३ (सु० की०क०)