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:: प्राग्वाट-इतिहास:
[द्वितीय
राजधानी कर्णावती में था । दोनों प्राचार्यों में वाद होना निश्चित हुआ। गूर्जरसम्राट् सिद्धराज एवं अणहिलपुरपरान के श्रीसंघ के आग्रह पर गूर्जरसम्राट् की राजसभा जहाँ भारत के प्रखर एवं सब धर्मों के विद्वान् सदा रहते थे, वाद करने का स्थान चुनी गई। महाकवि श्रीपाल का प्रयत्न इसमें अधिक था। दोनों सम्प्रदायों में यह प्रतिज्ञा रही कि अगर दिगम्बराचार्य हार जायेंगे तो एक चोर के समान उनका तिरस्कार करके परनपुर के बाहर निकाल दिया जायगा और श्वेताम्बराचार्य हारेंगे तो श्वेताम्बरमत का उच्छेद कर दिगम्बरमत की स्थापना की जायगी। वि० सं० ११८१ वैशाख मास की पूर्णिमा के दिन गूर्जरसम्राट् की राजसभा में भारी जनमेदनी एवं गूर्जरदेश और अन्य देशों के प्रखर पण्डितों की उपस्थिति में यह चिरस्मरणीय प्रचण्ड वाद प्रारम्भ हुआ । महाकवि एवं कविचक्रवर्ती श्रीपाल वादी देवसरि के मत का प्रमुख समर्थक था और इसने वाद में प्रमुख भाग लिया था। अन्त में श्वेताम्बरमत की जय हुई और इससे कविचक्रवर्ती श्रीपाल का यश, गौरव और प्रतिष्ठा अधिक बढ़ी । पाठक स्वयं सोच सकते हैं कि श्रीपाल किस कोटि का विद्वान् था और समाज में उसकी कितनी प्रतिष्ठा थी तथा सम्राट् उसका कितना मान, विश्वास करते थे।
इन उपरोक्त प्रसंगों से महाकवि श्रीपाल का अगाध चातुर्य एवं उसकी विद्वता, सहिष्णुता, शिष्टता, विचारशीलता एवं उच्चता का परिचय मिलता है। अतिरिक्त इन विशेष गुणों के सम्राट् और श्रीपाल में सचमुच अति प्रेमपूर्ण सम्बन्ध था और श्रीपाल सम्राट का अभिन्न मित्र था भी सिद्ध होता है। सम्राट् सिद्धराज ने जो देवबोधि को महाकवि श्रीपाल का परिचय दिया था, उसके आधार पर यह सिद्ध होता है कि श्रीपाल की कृतियें निम्नवत् हैं।
(१) उत्तम प्रबन्ध (१) (२) दुलर्भसरोवर या सहस्रलिङ्गसरोवर-प्रशस्ति (३) रुद्रमहालय-प्रशस्ति . (४) 'वैरोचन-पराजय' नामक महाप्रबन्ध
(५) अत्यन्त प्रसिद्ध बड़नगर-प्रशस्ति । यह प्रशस्ति २६ पद्यों की है। बड़नगर का प्राचीन नाम मानन्दपुर था । सम्राट कुमारपाल ने वि० सं० १२०८ में अति प्राचीन बड़नगर महास्थान के चारों ओर एक सुदृढ़ परिकोष्ट (प्राकार) बनवाया था। महाकवि श्रीपाल ने उक्त परिकोष्ट के वर्णन और स्मरण के अर्थ यह प्रशस्ति रची थी। उनके महाकवि होने का परिचय इस एक कृति से ही भलिविध मिल जाता है।
'Sripala who wrote the prasasti of Sahasralinga Lake was a close associate of the King, who called him 'a brother' G. G. pt III P. 177 श्री पत्तन के श्री-संघ एवं श्वेताम्बर-संघ तथा राज्य सभा में श्रीपाल की प्रधानता थी का परिचय श्री वादी देवसरि और कुमुदचन्द्र के मध्य हुये वाद और देवबोधि का किया गया सत्कार से विशद रूप से मिल जाता है । 'प्रभावकचरित्र' में हेमचन्द्रसरि-प्रबंध 'बाद' का वर्णन अधिक विशद एवं सविस्तार श्रीमद वादी देवसरि का चरित्र लिखते समय दिया गया है। क्यों कि ये भाचार्य प्राग्वाटवंश में उत्पन हुये हैं; अतः प्राग्वाट-इतिहास में इनका चरित्र एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। 'द्रौपदीस्वयंवरम्' नाटक की जिनविजयजी द्वारा लिखित प्रस्तावना पृ०८-६ बक्षचन्द्रकृत 'मुद्रित कुमुदचन्द्र नाटक' । यह नाटक इसी वाद को लेकर लिखा गया है। प्रभावक-चरित्र में देवसरि प्रबन्ध
'एकाहविहितस्फीत्रप्रबन्धोऽयं कृतीश्वरः। कविराज इति ख्यातः श्रीपालो नाम भूमिभू॥