________________
खण्ड] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण-जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा०सद्गृहस्थ-सं० सहसा :: [ २७६
गुम्बज आ गया है । ऊपर के गंभारे में जाने के लिये भ्रमती में नाल बनी है, जो सभामण्डप के पश्चिमपक्ष पर बने गंभारे के दक्षिणपक्ष पर होकर ऊपर जाती है । कला और कृतकाम यहाँ है ही नहीं। केवल गूढमण्डप के द्वार की ऊपर की पट्टी पर चौदह स्वप्नों का प्रदर्शन और मूलगंभारे के पूर्व, पश्चिम और दक्षिण द्वारों के बाहर के स्तंभों के ऊपर के भागों में और भित्तियों पर कुछ २ कला का काम किया गया है। फिर भी यह श्री चतुर्मुखाआदिनाथजिनालय इतना ऊंचा और विशाल है कि अर्बुदराज के अन्य धर्मस्थानों, मन्दिरों का अधिनायक-सा प्रतीत होता है।
संक्षेप में इस द्विमंजिले जिनालय में नीचे के तीन और ऊपर का एक-ऐसे चार गम्भारे, चार नीचे और एक ऊपर ऐसे पाँच शृंगारचौकियाँ और एक विशाल सभामण्डप, एक गुम्बज, एक शिखर तथा सत्रह स्तम्भों की सुदृढ़ और मनोहारिणी रचना संघवी सहसा द्वारा करवाई गई थी।
अर्बुदगिरि और उसके आस-पास का प्रदेश लगभग पन्द्रहवीं शताब्दी से सिरोही के महारावों के आधिपत्य में रहा है। महाराव जगमाल के विजयी राज्य में वि० सं० १५६६ फाल्गुण शुक्ला दशमी सोमवार को संघवी मदिर की प्रतिष्ठा और मू० सहसा ने लगभग १२० मण तोल पीतल की श्री मूलनायक आदिनाथ भगवान् की ना० बिंध की स्थापना सुन्दर प्रतिमा बनवाकर अपने काका-भ्राता आशाशाह द्वारा किये गये प्रतिष्ठोत्सव पर तपागच्छनायक श्री सोमसुन्दरसूरि के परिवार में हुये श्री सुमतिसुन्दरसूरिजी के शिष्य श्री कमलकलशसूरि के शिष्यप्रवर श्री जयकल्याणमूरिजी के करकमलों से उत्तराभिमुख प्रतिष्ठित करवाई तथा इसी शुभावसर एवं शुभ मुहूर्त में अन्य पित्तलमय बिंबों की भी प्रतिष्ठा एवं स्थापना हुई, जिनकी सूची आगे के पृष्ठ पर दी गई है । प्रतिमा की स्थापना के शुभावसरपर सं० सहसा और काका-भ्राता आशाशाह ने दान, पुण्य और स्वामीवात्सल्य में लाखों मुद्राएँ व्यय की । इस शुभ अवसर पर वे बड़ा संघ निकालकर अचलगढ़ गये थे । सं० सहसा के धर्मप्रेम को समझने के लिये मैं इतना ही पाठकों से निवेदन करता हूँ कि वे मन्दिर के दर्शन पधारकर करें तो उनको अनुमान लग जावेगा कि इतने ऊंचे अबुदाचल पर्वत के ऊपर के विषम पर्वतर्ता में भी विषम ओर दुर्गम इस पर्वत पर मन्दिर बनाने में कितना लक्ष द्रव्य व्यय हुआ होगा, निर्माता का उत्साह और भाव कितना ऊंचा और बढ़ा हुआ होगा और उसके ही अनुकूल उसने संघ निकालने में, संघ की भक्ति करने में, प्रतिष्ठोत्सव के समय दान, पुण्य में कितना द्रव्य खुले हृदय, श्रद्धा और भक्तिपूर्वक व्यय किया होगा।
श्री मू० ना० उत्तराभिमुख आदिनाथबिंब का लेख
'सवत (त) १५६६ वर्षे फा० शुदि १० ( सोमे) दिने श्री अर्बुदोपरि श्री अचल दुर्गे राजाधिराजश्रीजगमाल विजयराज्ये । प्राग्वाटज्ञाति (तीय) सं० कुवरपाल पुत्र सं० रतना सं० धरणा सं० रतना पुत्र सं० लाषा ।। सं० सलषा सं० सजा सं० सोना सं० सालिग भा० सुहागदे पुत्र सं० सहसाकेन भा० संसारदे पुत्र खीमराज द्वि० [ भा० ] अणुपमादे पु० देवराज खीमराज भा० रमादे कपू पु० जयमल्ल मनजी प्रमुखयुतेन ॥ निजकारितचतुर्मुखप्रासादे उत्तरद्वारे पित्तलमयमूलनायकश्रीआदिनाथबिंब कारितं प्र० तपागच्छे श्री सोमपन्दरसूरिपट्टे श्री मुनिसुन्दरसरि श्री जयचन्द्रसरिपट्टे श्री विशालराजसूरि । पट्टे श्री रत्नशेखरसरि ॥ पट्टे श्री लक्ष्मीसागरसरि श्री सोमदेवसूरिशिष्य श्री सुमतिसुन्दरसूरिशिष्य गच्छनायक श्री कमल कलशसरिशिष्य संपतिविजयमानगच्छनायक श्री जयकल्याणसरिभिः। श्री चरणसुन्दरसूरिप्रमुखपरिवारपरिवृतैः ।। सं० सोना पुत्र सं० जिणा भ्रात सं० श्रासाकेन भा० श्रासलदे पुत्र सत्तयुतेन कारितप्रतिष्ठामहे । श्री रस्तु' ।। सू० बाच्छा पुत्र सू० देपा पुत्र सू० अरबुद पुत्र हरदास ।।
अ० प्रा० जै० ले० सं० भा०२ ले०४६४