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:: प्राग्वाट-इतिहास:
[तृतीय
प्रतिष्ठोत्सव के शुभ मूर्हत में प्रतिष्ठित प्रतिमायें:- प्रतिमा
धातु
निर्माता प्रतिमा का स्थान सूत्रधार उत्तराभिमुख मू० ना० श्री आदिनाथ पित्तलमय प्रा० ज्ञा० सं० सहसा मूलगंभारा हरदास दक्षिणाभिमुख मू० ना० प्रतिमा के वायें पक्ष पर श्री सुपार्श्वनाथ
श्री संघ पश्चिमाभिमुख मू० ना० प्रतिमा के दायें पक्ष पर श्री आदिनाथ
सं० श्रीपति पश्चिमाभिमुख मू० ना० प्रतिमा के
सं० सालिगभार्या बायें पक्ष पर श्री आदिनाथ
नायकदेवी श्री पार्श्वनाथ
समस्त संघ द्वि० गंमारा श्री आदिनाथ
सं० कूपा चांडा श्री आदिनाथ ये सात ही चिंब पित्तलमय और अति सुन्दर बने हुये हैं। यहाँ सूत्रधार हरदास जो सूत्रधार अरबुद का पुत्र और देपा का पौत्र तथा जिसका प्रपितामह सू० वाच्छा था अति ही कुशल प्रतीत होता है और उसकी
१. अ० प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले०४६४, ४७१, ४७३, ४७४, ४८२. ४८३, ४८४ देखिये
श्री पूर्णचन्द्रजी नाहर के जै० ले० सं० भा०२ ले० २०२८ में श्री संघ द्वारा प्रति० श्री आदिनाथबिंब का भी उल्लेख है; परन्तु अ० प्रा० जै० ले० सं० भा० २ में इस लेखांक का उल्लेख नहीं है, अतः छोड़ दिया गया है। गुरुपरम्परा
सूत्रधारवंश २. तपागच्छीय श्री सोमसुन्दरसूरि
३. सूत्रधार वाछा श्री मुनिसुन्दरमरि श्री जयचन्द्रसूरि श्री विशालराजसूरि
, अरबुद श्री रत्नशेखर सूरि
,, हरदास
__,
देपा
श्री लक्ष्मीसागरसरि श्री सोमदेवसूरिशिष्य श्री सुमतिसुन्दरसूरिशिष्य गच्छनायक श्री कमल कलशमूरिशिष्य संप्रतिविजयमानगच्छनायक श्री जयकल्याणमूरि।।
प्राग्वाट-इतिहास के सम्बन्ध में ता० ४-६-५१ से ६-७-५१ तक तीर्थ और मंदिरों का पर्यटन करने के लिए यात्रा पर रहा । ता० २६, ३०-६-५१ को मैं अचलगढ़ था। श्रीमद् पूज्य मु० जयंतविजयजी का मैं ही नहीं, इतिहास और पुरातत्त्व का प्रत्येक प्रेमी और शोधक आभारी रहेगा कि उन्होंने जिन २ स्थानों का इतिहास और पुरातत्त्व की दृष्टियों से वर्णन लिखा, पुनः उसी के लिये समय, द्रव्य और श्रम अधिक लगाने की आवश्यकता ही नहीं रक्खी। वैसे शोध कभी भी पूर्ण नहीं होती है। वह जितनी की जावे, आगे ही बढ़ती है। फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि पूर्वगामियों के श्रम और अनुभव का लाभ उठाने पर अपेक्षाकृत श्रम
और समय, द्रव्य कुछ तो कम ही होगा। अचलगढ़ का मंदिर वैसे विशाल है। परन्तु देलवाड़े के जैनमंदिरों की भाँति गूढ़ और एक दम कलापूर्ण नहीं होने से शीघ्र ही समझा और वर्णित किया जा सकता है । _ मंदिर में चार कायोत्सर्गिकबिंब, २१ प्रतिमायें और एक पादुकापट्ट हैं। पित्तल की बारह प्रतिमायें तथा दो कायोत्सर्गिक मूर्तियाँ और पाषाण के दो कायोत्सर्गिकबिंब तथा नव प्रतिमायें हैं। धातुप्रतिमाओं में मूलगंभारा में चारों दिशाओं में प्रतिष्ठित चार