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प्राग्वाट-इतिहास::
[तृतीय
ने सं० लींबा की स्त्री लीलादेवी, उसके ज्ये० पुत्र बडुश्रा और बडुआ की स्त्री जशदेवी, द्वितीय पुत्र कडुआ और उसकी स्त्री देक; संघवी भड़ा और उसकी पत्नी वीरिणी और जीविणी, जीविणी के पुत्र उदयसिंह और उसकी स्त्री चन्द्रावलीदेवी और चन्द्रावलीदेवी के पुत्र रत्ना तथा तृतीय भ्राता मेला और मेला की प्र० स्त्री ऑतिदेवी और द्वि० स्त्री वारु और वारु के पुत्र पाहरु आदि परिजनों के सहित पुष्कल द्रव्य व्यय करके आलयस्था देवकुलिका बनवा कर, उसमें तपागच्छीय श्री लक्ष्मीसागरसूरिजी के कर-कमलों से श्री सुमतिनाथबिंब को प्रतिष्ठित करवाया।
वंशवृक्ष सीसराग्रामवासी शाह गुणपाल [रांऊ]
सं० लींबा [लीलादेवी] सं० भड़ा [१ वीरिणी २ जीविणी] सं० मेला [१ शांतिदेवी २ वारूदेवी]
उदयसिंह [चन्द्रावलीदेवी] वडा [जशदेवी] कडुवा [देक]
रत्ना
घाहरू
श्री आरासणपुरतीर्थ अपरनाम श्री कुम्भारियातीर्थ और दंडनायक विमलशाह तथा
प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादि-कार्य
पारासणपुर का वर्तमान नाम कुम्भारिया है । यह अभी केवल ८-१० घरों का ग्राम है और दाता-भगवानगढ़ (स्टेट) के अन्तर्गत है। यहाँ आरासण नामक प्रस्तर की खान थी; अतः यह आरासणाकर अथवा आरासणपुर कहलाता था। वहाँ अनेक जैनमन्दिर बने हुये थे; अतः यह आरासणतीर्थ के नाम से विख्यात रहा है । अर्बुदपर्वतों में जो प्रसिद्ध अम्बिकादेवी का स्थान है, वहाँ से लगभग १॥ मील के अन्तर पर यह तीर्थ है । विक्रम की चौदहवीं शताब्दी के पूर्व तक तो अम्बावजीतीर्थ और कुम्भारियातीर्थ के जैनमन्दिरों की गणना एक ही आरासणपुर नगर में ही होती थी, परन्तु खिलजी सम्राट् अल्लाउद्दीन के सेनापति उगलखखां और नसरतखां ने वि० सं० १३५४ में जब गूर्जर-सम्राट् कर्ण पर आक्रमण किया था, वे चन्द्रावती राज्य में होकर अणहिलपुरपत्तन की ओर बढ़े थे। चन्द्रावती उन दिनों भारत की अति समृद्ध एवं वैभवपूर्ण नगरियों में थी और अति प्रसिद्ध जैन श्रीमंत चन्द्रावती में ही बसते थे। यवन-सेनापतियों ने चन्द्रावती को नष्ट-भ्रष्ट किया और चन्द्रावतीराज्य के समस्त शोभित एवं समृद्ध स्थानों को उजाड़ा। इसी समय आरासणपुरतीर्थ भी उनके निष्ठुर प्रहारों का लक्ष्य बना । पारासणपुर उजड़ गया और फिर नहीं बस पाया । इस प्रकार अम्बावजीतीर्थ और कुम्भारियाग्राम के बीच फिर आवादी नहीं बढ़ने के कारण अलगाव पड़ गया, वस्तुतः दोनों तीर्थ एक ही आरासणपुर के अन्तर्गत रहे हैं।