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खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण-जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ-सं०रना-धरणा:: [२६६
तृतीय कार्य-दानशाला बनवाई गई और चतुर्थ कार्य-अपने लिये एक अति विशाल महालय बनवाया । वि० सं० १४६८ तक जिनालय, दानशाला, महालय और धर्मशाला चारों कार्य प्रायः बन चुके थे ।
___ इस त्रैलोक्यदीपक-धरणविहार नामक राणकपुरतीर्थ की अंजनशलाका वि० सं० १४६८ फा० कृ० ५ को और बिंबस्थापना फा० कृ० १० को ( राजस्थानी चैत्र कृ० १०) शुभमुहूर्त में सुविहितपुरन्दर, परमगुरु श्री श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि के देवसुन्दरसूरिपट्टप्रभाकर, श्रीबृहत्तपागच्छेश श्री सोमसुन्दरसूरि के कर-कमलों से, जो कर-कमलों से प्रतिष्ठा श्री जगच्चंद्रसूरि और श्री देवेन्द्रसूरि के वंश में थे, परमाहत सं० धरणाशाह ने अपने ज्येष्ठ भ्राता सं० रत्नाशाह, भ्रातृजाया रत्नदेवी, भ्रातृज सं० लाखा, सलखा, मना, सोना, सालिग तथा स्वपत्नी धारलदेवी एवं अपने पुत्र जाखा और जावड़ के सहित बड़ी धूम-धाम से करवाई। आज भी उसकी पुण्यस्मृति में च० कृ० १० (गुजराती फा० कृ० १० ) को प्रतिवर्ष मेला होता है और उसी दिन नवध्वजा चढ़ाई जाती है। यह ध्वजा और पूजा सं० धरणाशाह के वंशजों द्वारा जो घाणेराव में रहते हैं चढ़ाई जाती है और उनकी ही ओर से पूजा भी बनाई जाती है। इस प्रतिष्ठोत्सव में दूर २ के अनेक नगर, ग्रामों से ५२ बावन बड़े२ संघ और सद्गृहस्थ आये थे तथा अनेक बड़े २ आचार्य अपने शिष्यगणों के सहित उपस्थित हुये थे । इस प्रकार ५०० साधु-मुनिराज एकत्रित हुये थे । उक्त शुभ दिवस में मूलनायक-युगादिदेव-देवकुलिका में सं० धरणाशाह ने एक सुन्दर प्रस्तर-पीठिका के ऊपर चारों दिशाओं में * अभिमुख युगादिदेव भगवान् आदिनाथ की भव्य एवं श्वेतप्रस्तरविनिर्मित चारसपरिकर विशाल प्रतिमायें स्थापित की। प्रतिष्टोत्सव के प्रथम दिन से ही पश्चिम सिंहद्वार के बाहर अभिनय होने लगे थे। दक्षिणसिंहद्वार के बाहर श्री सोमसुन्दरसूरि तथा अन्य आचार्यों, मुनि-महाराजों के दर्शनार्थ श्रावकों का समारोह धर्मशाला के द्वार पर लगा रहता था. पूर्वसिंह-द्वार के बाहर वैतादयगिरि का मनोहारी दृश्य था, जिसको देखने के लिये भीड़ लगी रहती थी और उत्तरसिंह-द्वार के बाहर श्रावक-संघ दर्शनार्थ एकत्रित रहते थे । प्रतिष्ठावसर पर सं० धरणाशाह ने अनेक आश्चर्यकारक कार्य किये तथा दीनों को बहुत दान दिया और उनका दारिद्रथ दूर किया ।
सं० धरणाशाह का चतर्थ कार्य अपने लिये महालय बनवाने का है। यह भी उचित ही था। तीर्थ का बनाने वाला तीथे की देखरेख की दृष्टि से, भक्ति और उच्च भावों के कारण अपने बनाये हुये तीर्थ में ही रहना चाहेगा।
*'च्यारइ महूरत सामता ऐ लोधा एक ही बार तु, पहिलइ देवल मांडीउ ए बीजइ सत्तु कारतु ।
पौषधशाला भति भक्ति ए मांडी देउल पासि तु, चतुर्थडे महूरत धरणउं मंडाव्या आवाश तु॥ यह उपरोक्त पद्य मंह कवि के वि० सं०१४६६ में बनाये हुए एक स्तवन का अंश है। मेह कवि ने अपने इसी लम्बे स्तवन में एक स्थल पर इस प्रकार वर्णित किया है
'रलियाइति लखपति इणि घरि, काका हिंव कीजई जगडू परि।
__ जगडू कहीयई राया सधार, आपण पे देस्या लोक आधार' । अर्थात् वि० सं० १४६५ में भारी दुष्काल पड़ा। सं० धरणाशाह को उसके भ्रातुज ने जगत्-प्रख्यात महादानी जगडूशाह श्रेष्ठि के समान दुष्काल से पीड़ित,क्षधित, दीन,धनहीन जनता की सहायता करने की प्रार्थना की । भ्रातृज की प्रार्थना को मान देकर सं० धरणा ने त्रैलोक्यदीपकतीर्थ, धर्मशाला, स्वनिवास बनवाना प्रारम्भ किया तथा सत्रालय खुलवाया।
उत्तराभिमुख मूलनायक प्रतिमा वि० सं० १६७६ की प्रतिष्ठित है। इससे यह सिद्ध होता है कि सं० धरणाशाह की स्थापित प्रतिमा खण्डित हो गई थी और पीछे प्राग्वाटज्ञातीय विरधा और उसके पुत्र हेमराज नवजी ने उक्त प्रतिमा स्थापित की थी।