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:: प्राग्वाट - इतिहास ::
[ तृतीय
इन वलयों की कला को देखकर मुझको मैन्चेस्टर की जगत्-विख्यात जालियों का स्मरण हो आया, जो मैंने कई बड़े २ अद्भुत संग्रहालयों में देखी हैं । परन्तु इस कला कृति की सजीवता और चिर- नवीनता और शिल्पकार की टांकी का जादू उस यन्त्र कला कृति में कहाँ ?
दक्षिण प्रतोली के ऊपर के महालय में एक प्रोत्थित वेदिका पर श्रेष्ठि-प्रतिमा है, जो खड़ी हुई है । उस पर सं० १७२३ का लेख हैं । पूर्व और पश्चिम प्रतोलियों के ऊपर के महालयों में गजारूढ़ माता मरुदेवी की प्रतिमा प्रतोलियों के ऊपर महालयों है, जिसकी दृष्टि सीधी मूल-मन्दिर में प्रतिष्ठित आदिनाथबिंब पर पड़ती है । उत्तरद्वार की का वर्णन प्रतोली के ऊपर के महालय में सहस्रकुटि विनिर्मित है, जिसको राणक-स्तम्भ भी कहते हैं । यह अपूर्ण है | यह क्यों नहीं पूर्ण किया जा सका, उसके विषय में अनेक दन्त कथायें प्रचलित हैं । इस सहस्र-कुटि-स्तम्भ पर छोटे-बड़े अनेक शिलालेख पतली पट्टियों पर उत्कीर्णित हैं। जिनसे प्रकट होता है कि इस स्तम्भ के भिन्न २ भाग तथा प्रभागों को भिन्न व्यक्तियों ने बनवाया था । जैसी दन्तकथा प्रचलित है कि इसका बनाने का विचार प्रतापी महाराणा कुम्भकर्ण ने किया था, परन्तु व्यय अधिक होता देखकर प्रारम्भ करके अथवा कुछ भाग बन जाने पर ही छोड़ दिया । वचनों में सदा अडिग रहने वाले मेदपाटमहाराणाओं के लिये यह श्रुति मिथ्या प्रतीत होती है और फिर वह भी महाप्रतापी महाराणा कुम्भ के लिये तो निश्चिततः ।
ओर चतुष्क की चारों बाहों पर प्रकोष्ठ
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चतुष्क पर बाहर की ओर कुछ इश्च स्थान छोड़कर चारों बनाया गया है, जिसमें चारों प्रमुख द्वार चारों दिशाओं में खुलते हैं द्वारों द्वारा अधिकृत भाग छोड़ कर प्रकोष्ठ प्रकोष्ठ, देवकुलिकाओं और के शेष भाग में देवकुलिकायें बनी हुई हैं, जो श्रमने-सामने की दिशाओं में संख्या भ्रमती का वर्णन और आकार-प्रकार में एक-सी हैं । ये कुल देवकुलिकायें संख्या में ८० हैं । इनमें से छिहत्तर देवकुलिकायें तो एक-सी शिखरबद्ध और छोटी हैं । ४ चार इनमें से बड़ी हैं, जिनमें से दो उत्तर द्वार की प्रतोली के दोनों पक्षों पर हैं- पूर्वपक्ष पर महावीरदेवकुलिका और पश्चिमपक्ष पर समवसरण कुलिका है । इसी प्रकार दक्षिण-द्वार की प्रतोली के पूर्वपक्ष पर आदिनाथकुलिका और पश्चिमपक्ष पर नंदीश्वरकुलिका है । इन चारों की बनावट भी विशालता एवं प्रकार की दृष्टि से एक-सी है । ये चारों गुम्बजदार हैं । इनके प्रत्येक के आगे गुम्बजदार रंगमण्डप हैं, जो छोटी देवकुलिकाओं के प्रांगण-भाग से आगे निकला हुआ है । समस्त छोटी देवकुलिकाओं का प्रांगण स्तम्भ उठा कर छतदार बनाया हुआ हैं । उपरोक्त रंगमण्डपों तथा देवकुलिकाओं के प्रांगण के नीचे भ्रमती है, जो चारों कोणों की विशाल शिखरबद्ध देवकुलिकाओं के पीछे चारों प्रतोलियों के अन्तरमुखों को स्पर्श करती हुई और चारों दिशाओं में बने चारों मेघमण्डपों को स्पर्शती हुई चारों ओर जाती हैं ।
चारों कोणों में शिखरबद्ध चार विशाल देवकुलिकायें हैं । प्रत्येक देवकुलिका के आगे विशाल गुम्बज - दार रंगमण्डप है । इन देवकुलिकाओं को महाधर- प्रासाद भी लिखा है । ये इतनी विशाल हैं कि प्रत्येक एक अच्छा जिनालय है । ये चारों भिन्न २ व्यक्तियों द्वारा बनवाई गई हैं। इनमें जो लेख कोणकुलिकाओं का वर्णन हैं वे वि० सं० १५०३, १५०७, १५११ और १५१६ के हैं । इस प्रकार धरणविहार में अस्सी दिशाकुलिकायें और चार कोण-कुलिकायें मिलाकर कुल चौरासी देवकुलिकायें हैं ।
सं० १७२३ का लेख पूरा पढ़ा नहीं जाता है। पत्थर में खड्डे पड़ गये हैं और अक्षर मिट गये हैं । सं० १५५१ वर्षे वैषाख बदि ११ सोमे सं० जावड़ भा० जसमादे पु० गुणराज भा० सुगदाते पु० जगमाल भा० श्री वछ करावित' । एक ही लेख में दो संवत् कैसे ?