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खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण-जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०क्षा सद्गृहस्थ-श्रे० पेथड़ :: [२५५
वि० सं० १५६० में दोनों भ्राताओं ने सपरिवार एवं अनेक सधर्मी बन्धुओं के साथ में जीरापल्लीतीर्थ और अर्बुदतीर्थों की भक्तिभावपूर्वक दानादि पुण्यकार्य करते हुये यात्रा की।
आगमगच्छीय श्रीमद् विवेकरत्नसरि का महामहोत्सवपूर्वक बहुत द्रव्य व्यय करके सरिपदोत्सव किया तथा इनके सदुपदेश से वि० सं० १५७१ पौष कृ. १ सोमवार को गंधारबन्दर में आचार्य श्रीमद् संयमरत्नसरि पर्वत और कान्हा के और उपा० विद्यारत्नगणि की निश्रा में अनेक सुकृत के कार्य किये—जिनबिंबों की सुकृतकार्य
प्रतिष्ठा करवाई और तीर्थ यात्रा की। निमन्त्रित संघों और नागरिक व्यापारीवर्ग का स्वामीवत्सलादि से बहुत द्रव्य व्यय करके सत्कार किया । सधर्मी बन्धुओं को दो-दो रुपये की भेंट दी । गंधारबन्दर के समस्त धर्मस्थानों में कल्पसूत्र की प्रतियाँ भेंट की। शीलवतादरण-नंदिमहोत्सव, आचार्यपदोत्सव और उपाध्यायपदोत्सव किये। इन उत्सवों में अनेक ग्राम, नगरों से आये हुये साधु, मुनियों को वस्त्रदान दिया। श्रीमद् विवेकरत्नमरि के वचनों से 'प्रोपनियुक्तिवृत्ति,''श्री संदेह विषौषधि,' 'अनुयोगद्वारवृत्ति' लिखवाई। इस प्रकार इन धर्मिष्ठ काका भ्रातृजा ने अनेक धर्मग्रन्थों का लेखन करवाया, ज्ञानभण्डारों की स्थापना की, जीर्णोद्धार में द्रव्य व्यय किया तथा धर्मशालाओं में, यात्राओं में अन्न-वस्त्रदान में, संघभक्ति एवं स्वामीवात्सल्यों में और इसी प्रकार के अन्य धर्मकृत्यों में अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग करके उज्ज्वल कीर्ति और प्रतिष्ठा प्राप्त की।
वि० सं० १३५३ से वि० सं० १५७१ तक अर्थात् २१८ वर्षों तक इस कुल का गौरव और प्रतिष्ठा एकसी बनी रहीं। ऐसे ही प्रतापी एवं यशस्वी कुलों से जैनसमाज का गौरव रहा है और जैनधर्म की प्रसिद्धि और प्रचार बढ़ सका है।
'स्वकारिताहत्प्रतिमा प्रतिष्ठा, विधाप्य तौ पर्वत डुङ्गाराभिधौ । वर्षे हि नंदेसु तिथौ १५५६ च चक्रतुः श्रीवाचकस्थापनसन्महोत्सवं । खर्तुतिथिमित (१५६०) समाया यात्रा तौ चक्रतुः सुतीर्थेषु । जीरापल्लीपार्बुिदाचलायेषु सोल्लासं ॥२६॥ गंधारमंदिरे तौझलमलयुगलादिसमुदयोपेताः । श्रीकल्पपुस्तिका अपि दत्वा रिक्थं च सर्वशालाषु ॥२७॥ कृतसंघसत्कृती चावाचयता तौ च रुप्यनाणकयुग । ददश्व (तौ च) सितापुजं समस्ततनागरिकवणिजा ॥२८॥ कृतवंतावित्यादिविहित चतुर्थवतादरी सकृतं । श्रागमगच्छेशश्रीविवेकरत्नाख्यगुरुवचनात् ॥२६॥ अर्थोत्तमौ पर्वतकान्हनामको, सार्थोद्यमौ सरिपदप्रदापने । श्राकारिताना च समानधर्मिणा, नानाविधस्थान समागताना ॥३०॥ पुसा दुकूलादिकदानपूर्वकं, समस्तसद्ददर्शनसाधुपुजनात् । महामहं तेनतुरुत्तरं तौ, पवित्र चितौ जिनधर्मवासितौ ॥३१॥ श्रागम गच्छ विभूता सूरि जयानंदसद्गुरोः क्रमतः । श्रीमद् विवेकरत्नप्रभुसूरीणी सदुपदेशात् ॥३२॥ शशिमुनितिथि (१५७१) मित्त वर्षे समग्र सिद्धानलेखनपराभ्या । व्यवहार परबत कान्हभ्या सु-(?) रसिकाभ्यो ॥३३॥
प्र० सं० पृ० ७५, ७६ (प्र० सं० २६६,२७०) प्र० सं० द्वि० भा०प्र० सं० २७२ पृ० ७६ (श्री संदेह विषौषधि) प्र०सं० द्वि० भा० प्र०६३३ १०१६१ (श्री चैत्यवंदनसूत्र विवरण) जै० गु० क० भा०२ खं० २ पृ० २२३२। पुरातत्त्व वर्ष १ अं०१ में एक ऐतिहासिक जैन प्रशस्ति' नामक लेख देखो