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खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा०-ज्ञा० सद्गृहस्थ-श्रे० देशल :: [ २२
विजयपाल विजयपाल गुर्जरसम्राट् द्वितीय भीमदेव के समय के प्रसिद्ध विद्वानों में था। इसने द्वि अंकी 'द्रौपदी स्वयंवरम् नामक नाटक संस्कृत में लिखा है, जो सम्राट की आज्ञा से त्रिपुरुषदेव के सामने वसन्तोत्सव के शुभावसर पर अणहिलपुरपत्तन में खेला गया था। जिसे देखकर प्रजाजन अति प्रमुदित हुये थे । इस महाकवि की भी उपरोक्त कृति के अतिरिक्त अन्य कोई कृति उपलब्ध नहीं है। यह भी अपने पिता, प्रपिता के सदृश ही श्रीमान् एर्ष राजमान्य था।
महाकवि श्रीपाल का भ्राता श्रे० शोभित
महाकवि श्रीपाल का भ्राता श्रे० शोभित था । श्रे० शोभित अति दानवीर एवं जिनेश्वर का परम भक्त था। उसने अपने जीवन में अनेक पुण्य के कृत्य किये और मर कर अमर कर्ति को प्राप्त हुआ। उसकी स्त्री का नाव श्रे० शोभित और उसका शांतादेवी और पुत्र का नाम आशुक था । श्रे० आशुक ने अर्बुदाचलस्थ श्री विमलपरिवार
वसतिका नामक श्री आदिनाथचैत्यालय की हस्तिशाला के समीप के सभामण्डप के एक स्तंभ के पीछे एक छोटा प्रस्तर-स्तंभ स्थापित करवाया, जिसमें श्रे० शोभित, उसकी स्त्री शान्ता और अपनी (आशुक) मूर्तियाँ उत्कीर्णित करवाई और जिसके पीछे के भाग में श्रे० शोभित की अश्वारूढ़ प्रतिमा अंकित करवाई। यह छोटा प्रस्तर-स्तंभ आज भी विद्यमान है।
न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थ
श्रेष्ठि देशल वि० सं०.११८४
विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में अणहिलपुरपतन में प्राग्वाटज्ञातीय सर्वदेव नामक एक प्रति प्रसिद्ध श्रावक रहता था । उसका कुल बड़ा गौरवशाली और सम्पन्न था। दोनों स्त्री-पुरुष श्रावकाचार के अनुसार जीवन यापन
'प्राग्वाटाहयवंशमौक्तिकमरोः श्रीलक्ष्मणस्यात्मजः श्रीश्रीपालकवीन्द्रबन्धुरमल प्रज्ञालतामण्डपः। श्रीनाभेयजिनाहिपद्ममधुपस्त्यागाद्भुतैः शोभितः श्रीमान् शोभित एष पुण्यविभधैः स्वलोकमासेदिवान् ॥१॥ चित्तोत्कीर्णगुणः समग्रजगतः श्रीशोभितः स्तंभकोत्कीर्णः शांतिकया समं यदि तया लक्ष्म्येव दामोदर । पुत्रोणाशुकसंज्ञकेन च धृतप्रधम्नरूपं(प)श्री(श्रि,या सार्ध नंदत, यावदस्ति वसुधा पाथोधिमुद्रांकिता ॥२॥
अ० प्रा० जै० ले० सं० भा०२ ले० २२.