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:: प्राग्वाट - इतिहास ::
गये हैं । इनके समय में जैनधर्म की जो जाहोजलाली रही हैं, वह फिर देखी और सुनी नहीं गई ।
उस समय के श्रावकों का द्रव्य अभयदानपत्रों के निकलवाने में, मंदिरों के बनाने में, उनका जीर्णोद्धार करवाने में, बड़े २ तीर्थसंघ निकालने में, दुष्कालों में दीन और अन्नहीनों की सेवायें करने में, ज्ञानभंडारों की स्थापनायें करवाने में, मार्गों में प्रपायें लगवाने में, दीक्षामहोत्सवों में, धर्मपर्वों पर, सदावत खुलवाने में, प्रतिमायें प्रतिष्ठित करवाने में, विविध तपोत्सवों में, रथयात्राओं में आदि ऐसे ही अनेक धर्म एवं पुण्य के कार्यों में व्यय होता था। जैनाचाय्यों के चातुर्मासों में भी पर्युषण पर्व और रथयात्रायें आदि पर अतिशय द्रव्य व्यय किया जाता था ।
[ द्वितीय
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प्रत्येक स्त्री और जन संध्या और प्रातःसमय रात्रि और दिवससम्बन्धी अपने कृतपापों की आलोचना करता था और उनका प्रत्याख्यान करके प्रायश्चित लेता था । जैन श्रावकों की आदर्शता की उस समय में अन्यमती समाज पर गहरी छाप थी । अन्यमती राजा, मांडलिक, ठक्कुर और स्वयं सम्राट् जैन श्रावकों का भारी मान और विश्वास करते थे । यहाँ तक कि राज्य के बड़े २ उत्तरदायीपूर्ण विभागों एवं प्रान्तों के शासक भी वे जैनियों को ही प्रथम बनाते थे । अपने विश्वासपात्र लोगों में एवं सेवकों में इनको ही प्रथम नियुक्त करते थे । गुर्जरसम्राटों का इतिहास, राजस्थान के राजाओं के चरित्र उक्त कथन की पुष्टि में देखे जा सकते हैं । ये जैनधर्मी थे, परन्तु इनके जैनधर्मी का अर्थ संकुचित दृष्टि से प्रतिबन्धित नहीं था । ये अन्य सर्व ही मतों का मान करते थे और अन्यमती मन्दिरों, धर्मस्थानों और साधुओं का कभी भी अपमान नहीं करते थे । जिस प्रकार अपने सधर्मी बन्धुओं की सेवा करना ये अपना परमधर्म समझते थे, उस ही प्रकार काल, अकाल, दुष्काल, संकट में अन्यमती दोन, श्रमहीन, अपाहिजों की सदा सेवा करने के लिये तत्पर रहते थे । प्राग्वाटज्ञाति में उत्पन्न ऐसे महान् धर्मसेवी पुरुषों से जैनसमाज की महान् प्रतिष्ठा बढ़ी है और उसकी उज्ज्वलकीर्त्ति स्थापित हुई है ।
जैसे-जैसे श्रीमालीवर्ग, ओसवालवर्ग, अग्रवालवर्ग में अन्यमती उच्चवर्णीय कुल जैनधर्म स्वीकार करके प्रविष्ट होते रहे थे, उस ही प्रकार प्राग्वाटश्रावकवर्ग में भी ब्राह्मण, क्षत्रियकुल जैनधर्म की दीक्षा लेकर प्रविष्ट सामाजिक जीवन और होते रहे थे । जैनाचार्य जैन बना रहे थे और जैनसमाज उनको पूर्णतया अपना रहा आर्थिक स्थिति था । कन्या - व्यवहार और भोजन - व्यवहार में उनसे भेद नहीं वर्तता था । धर्मकार्य में और सामाजिक कार्यों में उनके साथ में समानता का व्यवहार किया जाता था । इन शताब्दियों में नवीन बात यह देखने को मिलती है कि जैनसमाज के विभिन्न २ वर्ग अपने २ अलग २ नामों से अपने २ को प्रसिद्ध करने की वेष्टा में लग गये थे, जिसका परिणाम आगे जाकर बहुत ही बुरा निकलने वाला था । दसा, वीसा और फिर पाँचा और ढइया जैसे भेदों की उत्पत्ति भी प्रत्येक वर्ग में अपने २ वर्ग की ममताभावनाओं में ही हुई है। यह किस कारण और किस सम्वत् में अथवा क्यों होने लगा का सत्य कारण आज तक कोई नहीं जान सका । इन शताब्दियों से पूर्व के किसी भी ग्रन्थ में, लेखों में प्राग्वाट, ओसवाल, श्रीमाल, अग्रवाल जैसे वर्ग-परिचायक नामों का प्रयोग देखने में नहीं आता है। यह सब हो रहा था भविष्य के लिये बुरा, परन्तु फिर भी उस समय जनसमाज के सर्व वर्गों में परस्पर ऐक्य और बेटी व्यवहार था ऐसा माना जा सकता है । अगर उनमें परस्पर ऐक्य और बेटी व्यवहार नहीं होता, तो भिन्न संस्कृति, संस्कार और मांसाहारी चत्रियकुलों को वे कैसे अपने में मिलाने