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ans ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य का सद्व्यय करके जैनवाङ्गमय की सेवा करने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ - श्रे० वरसिंह :: [ २३७
श्रेष्ठ नारायण अनुमानतः विक्रम की तेरहवीं शताब्दी
संभव है विक्रम की बारहवीं शताब्दी में प्राग्वाटज्ञातीय महण (सोहन) एक प्रसिद्ध श्रावक हो गया है । सुहागदेवी उसकी स्त्री थी। नागड़ उसका पुत्र था । नागड़ को उसकी स्त्री सलखू से तीन पुत्रों की प्राप्ति हुई । नारायण ज्येष्ठ पुत्र था । कडुया और घरणिग दोनों छोटे पुत्र थे । नारायण की स्त्री हंसलादेवी थी। हंसलादेवी के रत्नपाल नामक पुत्र हुआ । कडुया (कडक) और धरणिग की लाखू और जासलदेवी नामा दो पत्नियाँ थीं । नारायण बड़ा धर्मात्मा एवं दृढ़ जैनधर्मी श्रावक था । श्रीमद् देवेन्द्रसूरि का सदुपदेश श्रवण करके उसने प्रसिद्ध पुस्तक 'उत्तराध्ययमलघुवृत्ति की प्रति ताड़पत्र पर लिखवाई। यह प्रति खंमात के श्री शान्तिनाथ- प्राचीन ताड़पत्रीय जैन ज्ञान-भण्डार में विद्यमान है । १
नारायण [हंसलादेवी] रत्नपाल
वंश-वृक्ष मोहण [सुहागदेवी]
नागड़ [ सलखू]
कडुया (कडक) [लाखूदेबी ]
श्रेष्ठि वरसिंह
धरणिग [जासलदेवी]
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विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के पश्चात् प्राग्वाटज्ञातीय सुश्रावक मोक्षार्थी पूनड़ नामक हो गया है। उसने सद्गुरु के मुखारविंद से शास्त्रों का श्रवण किया था संसार की असारता को समझ कर अपना न्यायोपार्जित द्रव्य उसने अतिशयं भक्ति-भावनापूर्वक सातों क्षेत्रों में व्यय किया था । उसकी स्त्री का नाम तेजीदेवी था । तेजीदेवी पति की आज्ञापालिनीं एवं दृढ़ जैन-धर्मानुरक्ता त्री थी। उसकी कुर्ची से लिखा और वरसिंह नामक पुत्र उत्पन्न हुये । श्रे० वरसिंह ने गुरु वचनों को श्रवण करके 'हैमव्याकरणावचूरि' नामक ग्रंथ को लिखवाया | २
१- प्र० सं० प्र० भा०ता० प्र० ४३ पृ० ३७ । जै० पु० प्र० सं० ता० प्र० ५४ पृ० ५६ (उत्तराध्ययनलघुवृत्ति) २ - जै० ५० प्र० सं०ता० प्र० ७४ पृ० ७१ (हैमंव्या कर गावचूरि )
D.C.M.P. (G. O. S. Vo. No. LXXVI) P. 170 (289)