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खण्ड ]
:: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री वंश और महामात्य का पदत्याग और उसका स्वर्गारोहण :: [ १४६
एक दिन महामात्य वस्तुपाल को ज्वर चढ़ आया । महामात्य वस्तुपाल ने अपना अन्तिम दिवस निकट आया समझ कर शत्रुंजयतीर्थ की अन्तिम यात्रा करने की तैयारी की । महाराणक वीशलदेव और समस्त सामंत, चतुरंगिणी सैन्य, नगर के श्रीमंत, पंडित, आबालवृद्ध जन और महामात्य के संबंधी और परिजन महामात्य को धवलक्कपुर के बाहर बहुत दूर तक विदा करने आये । महामात्य ने सर्वजनों से क्षमत- क्षमापना किये और महाराणक वीशलदेव को आशीर्वचन देकर तीर्थ की ओर प्रस्थान किया । यह महामात्य की तेरहवीं तीर्थयात्रा थी । महामात्य के साथ में उसकी दोनों स्त्रियाँ और सारा परिवार था । मार्ग में अंकेवालिया नामक ग्राम में महामात्य का स्वर्गवास वि० सं० १२६६ माघ शुक्ला ५ (पंचमी) रविवार के दिन हो गया । महामात्य का अन्तिम संस्कार
और महामात्य वस्तुपाल को सर्प निकालने से रोकते हुये राणक वीशलदेव को भर्त्सना देने लगे और उन मंत्री भ्राताओं के सारे परोपकार, महत्त्व के कार्य जो उन्होंने राज्य, राजपरिवार, राणक वीरधवल और स्वयं वौशलदेव को सिंहासनारूढ कराने के लिये किये थे कह सुनाये और कहा कि राजन् ! अगर ऐसे राज्य के महोपकारी पुरुषोत्तम के ऊपर भी तुम्हारी कुदृष्टि हो सकती है तो हम भी आपके विषय में क्या विचार कर सकते हैं सोच लेना चाहिए। ये मंत्री भ्राता सरस्वती के और धर्म के पुत्र हैं। इन्हें कौन जीत सकता है और इन पर कौन अत्याचार करने में समर्थ हैं । ये तुम्हें मात्र अपना बालक समझकर क्षमा कर रहे हैं। ये विपरीत हो जाँय तो तुम्हारे चाटुकार राज्यसभासद् जिन्होंने तुम्हारे मस्तिष्क को बिगाड़ दिया है, एक पलभर के लिए इनके समक्ष नहीं ठहर सकेंगे। जब रागक वीरघवल ने इनको महामात्यपदों का भार संभालने के लिये आमंत्रित किया था, उस समय राणक वीरधवल मंत्री भ्राताओं के द्वारा निमंत्रित होकर पहिले इनके घर भोजन करने गया था। उस समय इन दूरदर्शी मंत्री भ्राताओं ने राणक वीरधवल से यह वचन ले लिया था कि अगर राजा कभी कुपित भी हो जाय तो इनके पास जितना अभी द्रव्य है, उतना इनके पास रहने देकर मुक्त कर दिया जाय । महाकवि की भर्त्सना से राणक वीशलदेव का क्रोध शांत पड़ गया और मंत्री भ्राताओं के उपकारों को स्मरण कर वह रोने लगा और सिंहासन से उठकर मन्त्री भ्राताओं से क्षमा मांगता हुआ अपने किये पर पश्चात्ताप करने लगा और कहने लगा कि वे अपना राज्यसंचालन का भार पुनः संभालें । मंत्री भ्राताओं ने वृद्धावस्था आ जाने के कारण वह अस्वीकार किया ? परन्तु वीशलदेव हठी था, उसने एक नहीं मानी । अन्त में तेजपाल महामात्यपद पर आरूढ किया गया और महामात्य वस्तुपाल ने विरक्त जीवन व्यतीत करने की अपनी अन्तिम इच्छा प्रकट करते हुए एक वीशलदेव से उसको राज्यकार्य से मुक्त करने की प्रार्थना की। राणक वी शलदेव को भारी हृदय के साथ महामात्य की अन्तिम इच्छा को स्वीकार करना पड़ा और वह महामात्य को उसके घर तक पहुँचाने बड़े समारोह के साथ गया ।
एक दिन मामा सिंह अपने प्रासाद से राजप्रासाद को जा रहे थे । मार्ग में जब वे पालखी में बैठे हुए निकल रहे थे, एक जैन उपाश्रय की ऊपरी मंजिल से किसी जैन साधु ने कूड़ा-कर्कट डाल दिया और वह रथ में बैठे हुये मामा सिंह पर उडकर गिर पड़ा। यह देखकर मामा सिंह अत्यन्त क्रोधित हुये और रथ से उतर कर उपाश्रय की ऊपर की मंजिल पर गये और साधु को प्रताड़ना दी । उक्त साधु रोता हुआ महामात्य वस्तुपाल के पास पहुँचा । महामात्य उस समय भोजन करने बैठा ही था, यह कथनी श्रवण कर वह उठ बैठा और अपने सेवकों को बुलाकर कहा कि क्या कोई ऐसा वीर योद्धा है, जो धर्म और गुरु का अपमान करने वाले अपराध के दंड में मामा सिंह का बाँया हाथ काट कर ला सके । भुवनपाल नामक एक वीर आगे बढ़ा और महामात्य ने उसको सज्जित होकर जाने की आज्ञा दी और शेष सब सेवकों को विशेष परिस्थिति के लिये तैयार रहने की तथा जो मरने से डरते हो उनको घर जाने की आज्ञा दी । भुवनपाल घोड़े पर चढ़ कर दौड़ा और मामा सिंह के पास जा पहुँचा । नमस्कार करके संकेत किया कि महामात्य का कोई संदेश लेकर आया हूँ । मामा सिंह ज्योंहि संदेश सुनने को झुका कि भुवनपाल ने उसका बाँया हाथ काट लिया और तुरंत घोड़ा दौड़ाकर महामात्य के पास पहुँचा और कटा हुआ हाथ आगे रक्खा । महामात्य ने उसको धन्यवाद दिया और युद्ध की तैयारी करने की आज्ञा दी । मामा का हाथ मन्त्रीप्रासाद के सिंहद्वार के बाहर दिवार पर दिखाई देता हुआ लटका दिया गया कि जिससे लोग समझ सके की किसी धर्म का अपमान करने का कैसा फल होता है।
उधर मामा सिंह का हाथ काटा गया है जेठवाजाति के लोगों ने सुनकर महामात्य को नीचा दिखाने के लिये युद्ध की तैयारी प्रारंभ की। बात की बात में सारे नगर में खलबली मच गई। मामा सिंह राजसभा में पहुंचा और महाराएक वीशलदेव को जो उसका भानजा था, महामात्य वस्तुपाल के सेवक द्वारा अपने हाथ के काटे जाने की बात कही। वीशलदेव ने प्रत्युत्तर में कहा कि