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:: प्राग्वाट-इतिहास::
[द्वितीय
भालेजनगर में यशोधन नामक एक श्रीमंत व्यापारी रहता था। उसके पूर्वजों ने श्रीमद् उदयप्रभसूरि के करकमलों से जैनधर्म स्वीकार किया था; परन्तु पीछे से कुसंगति में पड़ कर इस वंश के पुरुषों ने उसका परित्याग भणशाली (भंडशाली) कर दिया था। यशोधन ने अपने परिवार सहित पुनः जैनधर्म को स्वीकार किया और गोत्र की स्थापना उपाध्यायजी ने उसका भणशालीगोत्र स्थापित करके, उसके परिवार को उपकेशज्ञाति में सम्मिलित कर दिया। इस प्रकार धर्म का प्रचार करते हुये उपाध्याय विजयचन्द्रजी भालेज से विहार करके अन्यत्र पधारे। कठिन तप करते हुये आपने अनेक नगरों में भ्रमण किया और साधुओं में फैले हुये शिथिलाचार को बहुत सीमा तक दूर किया। वि० सं० ११६६ वैशाख शु० ३ को भण्डशाली यशोधन के भक्तिपूर्ण निमंत्रण पर आप पुनः भालेज में पधारे। अत्यन्त धूम-धाम से आपका नगर-प्रवेश-महोत्सव किया गया।
आचार्य जयसिंहसरि को उपाध्यायजी के नगर-प्रवेश के पूर्व ही वहाँ बुला रक्खा था । श्रेष्ठि यशोधन और संघ के अत्याग्रह को स्वीकार करके आचार्य जयसिंहसूरि ने उपाध्याय विजयचन्द्र को पुनः शुद्धसमाचारी प्राचार्यपद प्रदान किया और आर्यरक्षितसरि पुनः नाम रक्खा । श्रेष्ठि यशोधन ने आचार्यमहोत्सव में एक लक्ष द्रव्य का व्यय किया था। उसी संवत् में आचार्य जयसिंहसूरि भालेज में ही स्वर्ग को सिधार गये । आचार्य आर्यरक्षितमरि के ऊपर गच्छनायक का भार आ पड़ा।
आचार्य आर्यरक्षितसूरि के उपदेश से श्रेष्ठि यशोधन ने एक विशाल जिनालय बनवाया । प्रतिष्ठा के पूर्व कई विघ्न आये, उनका निवारण करके शुभ मुहूर्त में मन्दिर की प्रतिष्ठा की गई । प्रतिष्ठोत्सव के पश्चात् श्रेष्ठि यशोधन
आर्यरक्षितसूरि के उपदेश ने शत्रुजयमहातीर्थ के लिए संघ निकाला । इस संघ के अधिष्ठायक आचार्य आर्यरक्षितसे यशोधन का भालेज में सूरि ही थे । भालेज से शुभ मुहूर्त में संघ ने प्रयाण किया। मार्ग में संघ के निमित्त जिनमंदिर बनवाना और
बनने वाले भोजन में से आर्यरक्षितसरि आहार ग्रहण नहीं करते थे और नहीं मिलता तो शत्रञ्जयतीर्थ को संघ निकालना तथा विधिगच्छ की निराहार ही रह जाते थे । इस प्रकार कठिन तप करते हुये ये संघ के साथ-साथ खेड़ास्थापना
नगर में पधारे। खेड़ानगर में शुद्धाहार की प्राप्ति में अनेक विघ्न आये । अन्त में विधिपूर्वक आहार आपको मिला ही । उस समय से विधिगच्छ का प्रारम्भ होना माना गया है ।
सुरपाटण से आचार्य आर्यरक्षितसूरि अपने साधु-परिवारसहित खिणपनगर में पधारे। वहाँ कोड़ी नामक एक श्रीमंत और अति प्रसिद्ध व्यापारी रहता था । उसके समयश्री नाम की एक कन्या थी। वह आभूषणों आदि बहुमूल्य
वस्तुओं की बड़ी शौकीन थी। नित्य एक क्रोड़ रुपयों की कीमत के तो वह आभूषण समय श्री की दीक्षा
ही पहने रहती थी। कोड़ी श्रेष्ठि अपनी समयश्री पुत्री के सहित आचार्य महाराज के दर्शन को आया और नमस्कार करके व्याख्यान श्रवण करने को बैठ गया। प्राचार्य महाराज का वैराग्यपूर्ण व्याख्यान श्रवण करके समयश्री को वैराग्य उत्पन्न हो गया। पिता आदि ने बहुत समझाया, लेकिन उसने एक नहीं मानी और अंत में पिता ने उसको दीक्षा लेने की आज्ञा दे दी। निदान आचार्य महाराज ने समयश्री को बड़ी धूम-धाम से दीक्षा देदी । तत्पश्चात् आचार्य जी वहाँ से विहार करके अन्यत्र पधारे। आगे जाकर वह कोड़ी श्रेष्ठि गूर्जरसम्राट् सिद्धराज जयसिंह का कोषाध्यक्ष बना । सम्राट ने प्रसन्न होकर कोड़ी श्रेष्ठि को अठारह ग्रामों का स्वामी बनाया।