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:: प्राग्वाट-इतिहास:
[द्वितीय
सूरिजी का शिर जो अनेक विद्या एवं सिद्धमन्त्रों का भण्डार था उसको चूर २ हुआ मिला। वह निराश होकर लौट गया।
अंचलगच्छसंस्थापक श्रीमद् आर्यरक्षितसरि दीक्षा वि० सं० ११४६. स्वर्गवास वि० सं० १२३६
विक्रम की बारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अर्बुदाचल-प्रदेश के संनिकट ताणा (दंत्राणा) ग्राम में प्राग्वाटशातीयतिलक शुद्धश्रावकव्रतधारी क्रियानिष्ठ एक सद्गृहस्थ रहता था, जिसका नाम द्रोण था। द्रोण जैसा सज्जन,
धर्मात्मा और न्यायनिष्ठ था, वैसी ही उसकी शीलवती देदीनामा गृहिणी थी। दोनों स्त्रीवंश-परिचय
पुरुषों में अगाध प्रेम था। आर्थिक दृष्टि से ये साधारण श्रेष्ठि थे; परन्तु दोनों संतोषी और धर्ममार्गानुसारी होने से परम सुखी थे । श्रेष्ठि द्रोण दंताणा में दुकान करता था। उसकी दुकान सचाई के लिये प्रसिद्ध थी।
वि० सं ११३५ में एक दिवस बृहद्गच्छोत्पन्न नाणकगच्छाधिपति श्रीमद् जयसिंहसूरि दंत्राणा में पधारे । समस्त संघ आचार्य को वंदन करने के लिये गया। श्रावक द्रोण और उसकी स्त्री दोनों भी उपाश्रय में गये और जयसिंहसूरि का पदार्पण सूरिजी को वंदना करके घर लौट आये । वि० सं० ११३६ में देदी की कुक्षी से
और द्रोण का भाग्योदय सर्वलक्षणयुक्त पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम गोदुह रक्खा गया, क्योंकि उसके गोदुह का जन्म और वि०
गर्भ धारण करते समय देदी ने स्वप्न में गौदुग्ध का पान किया था। वि० सं० सं० ११४६ में उसकी दीक्षा
११४१ में पुनः श्रीमद् जयसिंहसूरि दंत्राणा में पधारे। श्रेष्ठि द्रोण और श्राविका सरिजी ने कहा कि चोर आज के बीसवें दिन आगट (आघात) में पकड़ा जायगा और वैसा ही हुश्रा। चोर पकड़ा गया। आभूषण ज्यों के त्यों मिल गये और पुनः गिरनारतीर्थ पर भेज कर प्रभुबि को वे धारण करवाये गये। , एक वर्ष सरिजी का चातुर्मास वल्लभीपुर में हुआ । वल्लभीपुर में सरिजी का वह ब्राह्मण-साथी, जो अब अवधूत योगी बन कर फिरता था, सरिजी का चातुर्माह श्रवण करके आया और विघ्न डालने का यत्न करने लगा। एक दिन व्याख्यान-सभा में उस अवधूत ने अपनी मूछ के दो बाल तोड़ कर श्रोतागणों के बीच में फैंके । वे दोनों बाल सर्प बन कर दौड़ने लगे । सूरिजी ने यह देखकर अपने शिर के बाल तोड़ पर फैंके । वे नेवला बनकर उन सपों के पीछे पड़े ।अब व्याख्यान बन्द हो गया और सर्प और नेवलों का द्वंद्व चला। अवधूत अपने को पराजित हुआ देखकर बहुत ही शर्माया और सो को पुनः बाल बना दिये।
एक दिन एक साध्वी सरिजी को वन्दन करने के लिये आ रही थी। मार्ग में उसको योगी मिला । योगी ने उसको पागल बना दिया। सरिजी को जब साध्वी के पागल होने का कारण मालूम हुआ तो उन्होंने कुछ व्यक्तियों को घास का पुतला बना कर दिया कि इसको लेकर वे श्रवधूत के पास जावें और उससे साध्वी को अच्छा करने के लिए समझावें । इस पर अगर अवधूत नहीं माने तो पुतले की एक अंगुली काट देवें और फिर भी नहीं माने तो पुतला की गर्दन काट डालें। उन व्यक्तियों ने जा कर प्रथम अवधूत को बहुत ही समझाया। जब वह नहीं माना, तब उन्होंने पुतले की एक अंगुली काट डाली । पुतले की अंगुली ज्योहि कटी अवधूत की भी वह ही अंगुली कट कर गिर पड़ी। अवधूत डरा और उसने कहा कि साध्वीको १०८ बार स्नान कराओ वह अच्छी हो जावेगी। इस प्रकार अवधूत योगी ने अनेक विघ्न, छल-छन्द किये, परन्तु तेजस्वी सूरिजी के आगे उसका एक भी कुप्रयत्न सफल नहीं हो सका। अन्त में दोनों में राजसभा में चौरासी वाद हुए और उसमें सरिजी की जय हुई। अवधूत शर्मा कर वहाँ से पलायन कर गया।