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:: श्री जैन श्रमण-संघ में हुये महाप्रभावक आचार्य एवं साधु- बृहत्तपगच्छीय श्रीमद् वादी देवसूरि :: [ २१३
इस प्रकार यह प्रचंड वाद समाप्त हुआ । विशाल समारोह के साथ वादी देवसूरि अपनी वसति में पधारे । वादी देवसूरि ने अपने प्रतिवादी के साथ जो सद्व्यवहार एवं भद्र व्यवहार किया, उससे उनकी निरभिमानता, सरलता एवं क्षमाशीलता का परिचय तो मिलता ही है, लेकिन ऐसे अवसरों पर ऐसी निर्ग्रथता एवं निस्पृहता बहुत कम देखने में आई है ।
वादी देवसूरि जैसे शास्त्रों के प्रकाण्ड पण्डित थे, वैसे ही मंत्र एवं तंत्रों के भी अभिज्ञाता थे । परास्त होकर. कुमुदचन्द्र ने अपनी कुटिलता नहीं छोड़ी। मंत्रादि के प्रयोग करके वे श्वेताम्बर साधुओं को कष्ट पहुँचाने लगे देवसूरि को युग-प्रधानपद अन्त में उनको शांत नहीं होता हुआ देखकर वादी देवसूरि ने अपनी अद्भुत मंत्र- शक्ति की प्राप्ति का उनके ऊपर प्रयोग किया । वे तुरन्त ही ठिकाने आगये और पत्तन छोड़ कर अन्यत्र चले गये । इस प्रचण्डवाद में जय प्राप्त करने से वादी देवसूरि का यश एवं गौरव अतिशय बढ़ा | सिद्धान्तमहोदधि श्रीमद् चन्द्रसूरि ने अत्यन्त प्रसन्न होकर वादी देवसूरि को जिनशासन की धुरा अर्पित की। सम्राट् ने उक्त लक्ष मुद्रा से श्रादिनाथ जिनालय विनिर्मित करवाया । वादी देवसूरि और अन्य तीन जैनाचार्यों ने बड़ी धूम-धाम से उसमें आदिनाथबिंब को वि० सं० १९८३ वैशाख शु० १२ को प्रतिष्ठित किया ।
वि० की दशवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं शताब्दियों में श्वेताम्बरचैत्यवासी यतिवर्ग में शिथिलाचार अत्यन्त बढ़ गया था । यह यतिवर्ग मन्दिरों में रहता था और मन्दिरों की आय, जमीन, जागीर का उपभोग अपनीसद्विधि एवं शुद्धाचार का इच्छानुसार बौद्धमत के मठों के समान करने लग गया था। जैन - आचार के विरुद्ध प्रवर्त्तन मन्दिरों में वर्त्तन चलता था। भक्तों को दर्शनों में भी बाधायें उत्पन्न होती थीं । इस प्रकार धीरे २ जैनधर्म के सच्चे उपासकों को भय एवं शंका उत्पन्न होने लगी कि एक दिन जैनधर्म की अपदशा बौद्धधर्म के समान होगी और यह भारतभूमि से उखड़ जायगा । शिथिलाचारी चैत्यालयवासी यतिवर्ग के विरोध में बारहवीं शताब्दी के अन्त में एक शुद्धाचारी साधुदल उठ खड़ा हुआ । इस साधुदल में अग्रगण्य साधुओं में श्रीमद् देवसूरि भी थे । ये ठेट से सुसंस्कृत, शुद्धाचारप्रिय साधु थे । इनका साधुसमुदाय भी वैसा ही शुद्धाचारी था । शिथिलाचारी यतिवर्ग का प्रभाव कम करने में, उनका विरोध करने में, उनका शिथिलाचार नष्ट करने में इन्होंने बड़ी तत्परता से प्रयत्न किया । परन्तु जैनसमाज पर दोनों का प्रभाव बराबर बराबर था । फल यह हुआ कि दोनों वर्गों में विरोध जोर पकड़ गया। आज भी हम देखते हैं कि ऐसे अनेक जैन मन्दिर हैं, जो शिथिलाचारी यतिवर्ग के अधिकार में हैं और उनकी आय को वे अपनी इच्छानुसार खर्चते हैं ।
मरुधर-प्रान्त के अन्तर्गत जालोर, जिसको ग्रन्थों में जाबालीपुर कहा गया है एक ऐतिहासिक नगर है । यह नगर कंचनगिरि की तलहटी में बसा हुआ है। कंचनगिरि पर एक सुदृढ़ किला बना हुआ है । इस किले में सम्राट कुमारपाल का जालोर कुमारपालविहार नामक एक जैन चैत्यालय है । इसको गूर्जरसम्राट्र कुमारपाल ने वि० सं० की कंचनगिरि पर कुमारपाल - १२२१ में विनिर्मित करवा कर वादी देवसूरि के पक्ष को सद्विधि की प्रवृत्ति करने विहार का बनवाना और उसको देवसूरि के पक्ष को के लिये समर्पित किया था। इस प्रकार से बनाये हुये चैत्यालय विधिचैत्य कहे जाते थे, अर्पित करना जहाँ प्रत्येक को दर्शन-पूजन का लाभ स्वतंत्रतापूर्वक प्राप्त होता था ।