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:: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और महामात्य वस्तुपाल और उसका परिवार ::
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यह योग्य पिता का योग्य पुत्र था। इसका जन्म लगभग वि० सं० १२६० में हुआ होगा। इसके तीन स्त्रियाँ थीं। १ जयतलदेवी, २ जंभणदेवी और ३ रूपादेवी। जैत्रसिंह वस्तुपाल तेजपाल के निजी सैनिक जैत्रसिंह या जयंतसिंह
विभाग का अध्यक्ष था। राज्यकार्य में भी यह अपने पिता के समान ही निपुण था ।
महामात्य वस्तुपाल जब वि० सं० १२७६ में खंभात से धवलकपुर में आया था, तब जैत्रसिंह को ही वहां का कार्यभार संभलाकर तथा खंभात का प्रमुख राज्यशासक बना कर आया था। जैत्रसिंह ने खंभात का राज्यकार्य बड़ी तत्परता एवं कुशलता से किया । महामात्य वस्तुपाल ने जैत्रसिंह की देख-रेख में खंभात में एक बृहदू पौषधशाला का निर्माण वि० सं० १२८१ में करवाया था और उसकी देख-रेख करने के लिये १ श्रे० रविदेव के पुत्र पयधर, २ श्रे० वेला, ३ विकल, ४ श्रे० पूना के पुत्र वीजा बेड़ी उदयपाल ५ आसपाल ६ गुणपाल को गोष्ठिक नियुक्त किये थे। खंभात पर लाटनरेश शंख का सदा दांत रहा और मालपनरेश और यादवगिरि के राजा भी शंख को सदा खंभात जीत लेने के कार्य में सहायता देने को तैयार रहते थे। ऐसी स्थिति में जैत्रसिंह का महान् चतुर और कुशल शासक होना सिद्ध होता है कि खंभात का शासन और सुरक्षा सदा सुदृढ़ रही और शंख के प्रयत्न सदा विफल रहे । जैत्रसिंह जैसा राजनीति में चतुर था, वैसा ही धर्म में दृढ़ और साहित्यसेवी था। भरौंच के मुनिसुव्रतचैत्यालय के आचार्य वीरसूरि के विद्वान् शिष्य जयसिंहमूरिकृत 'हम्मीरमदमर्दन' नामक प्रसिद्ध नाटक जैत्रसिंह की प्रेरणा से लिखा गया था और खंभात में भीमेश्वरदेव के उत्सव के अवसर पर प्रथम बार उसकी ही तत्त्वावधानता में खेला गया था। महान् पिता के प्रत्येक धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक एवं स्थापत्यकलासंबंधी कार्यों में उसकी सम्मति और सहयोग रहा। स्थापत्यकला तथा संगीत का यह अधिक प्रेमी था । राज्यसभा में भी इसका पिता के समय में तथा पिता की मृत्यूपरांत अच्छा संमान रहा । इतना अवश्य हुआ कि वस्तुपाल के स्वर्गगमन के पश्चात् वीशलदेव राणक की राजसभा में धर्म के नाम पर दलबंधियों का जोर बढ़ गया और वस्तुपाल तेजपाल के सर्वधर्मप्रेमी वंशजों को राज्यैश्वर्य से वंचित होना पड़ा।
किसी भी ग्रंथ, शिलालेख एवं पुस्तक-प्रशस्ति में जैत्रसिंह की कोई संतान का उल्लेख नहीं मिलता है। अगर संतान हुई होती तो यह निर्विवाद रूप से निश्चित है कि वस्तुपाल अपने पौत्र या पौत्री के श्रेयार्थ जैसे अपने अन्य परिजनों के श्रेयार्थ धर्मस्थान और धर्मकृत्य करवाये हैं, करवाता और उसका कहीं न कहीं अवश्य उल्लेख मिलता।
'मह उ० श्री ललितादेवीकुक्षिसरोवरराजहंसायमाने महं० जयंतसिंहे सं० ७६ वर्ष पूर्व मुद्राच्यापारान् व्यापृस्वति सति' प्रा०० ले० सं० भाग २ ले०३८-४३-गिरनार प्रशस्तियाँ