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खण्ड ] :: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर मंत्री वंश और उनका वैभव तथा साहित्य और धर्मसंबंधी सेवायें :: [१५१
जैसी समाज, देश और धर्म की तथा कला, विज्ञान और विद्या की सेवा कर सके, वैसा श्रमात्य संसार में आज तक तो कोई नहीं हुआ जिसने इनसे बढ़कर अपने धन का, तन का और शुद्धात्मा का उपयोग इस प्रकार निर्विकार, वीतराग, स्नेह-प्रेम-वत्सलता से जनहित के लिये बिना ज्ञाति, धर्म, सम्प्रदाय, प्रान्त, देश के भेद के मुक्तभाव से किया हो । महामात्य की समृद्धता का पता निम्न अंकनों से स्वतः सिद्ध हो जाता है ।
नित्य वस्तुपाल की सेवा में क्षत्रियवंशी उत्तम सुभट
तेजपाल की सेवा में महातेजस्वी रणबांकुरे राजपुत्र
मज्ञातीय घोड़े
१८००
१४००
५०००
२०००
१००००
३००००
२०००
१०००
१०००
27
१०००
दास-दासी
१००००
अनेक राजा महाराजाओं से भेंट में प्राप्त उत्तम हाथी ३००
स्वर्ण
चांदी
रत्न, माणिक, मौक्तिक
नकद रुपये
५००००००००)
अनेक भांति के वस्त्र आभूषण ५००००००००) के द्रव्य के भंडार
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जैसे राजकार्य विभागों में विभक्त था, ठीक उसी प्रकार महामात्य ने अपने घर के कार्यों को भी विभागों में विभक्त
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11
11
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पवनवेगी घोड़े
साधारण घोड़े
उत्तम गायें
बैल
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ऊंट
भैसें
सांडनियाँ
८ (४)०००००००) का
८०००००००) की अगणित
की ० कौ० (गुजराति भाषांतर) पृ० ३८, ३६
'यः स्वीयमातृपितृपुत्रकलत्रबन्धुपुण्यादिपुण्यजनये जनयाञ्चकार, सद्दर्शनत्रजविकाशकृते च धर्मस्थानावलीयनीमवनीनशेषाम्' न० ना० न० स० १६ श्लो० ||३७|| ५० ६१
'तेन भ्रातृयुगेन या प्रतिपुरमामाध्वशैलस्थलं वापीकूपनिपानकाननसरः प्रासादसत्रादिका । धर्मस्थानपरंपरा नवतरा चक्रेऽथ जीर्णोद्धृता तत्संख्यापि न बुध्यते यदि परं तद्वेदिनी मेदिनी ॥ ६६ ॥
प्रा० जै० ले० सं० [अर्बुदाचल - प्रशस्ति ] 'दक्षिणस्था श्रीपर्वतं यावत् पश्चिमायां प्रभासं यावत् उत्तरस्या केदारं यावत् तयोः कीर्तनानि सर्वाग्रेण त्रीणि कोटिशतानि चतुर्दशलक्षा श्रष्टादश सहस्राणि श्रष्टशतानि लोष्ठिकत्रितयोनानि द्रव्यव्ययः' । वि० ती० क० ४२ पृ० ८० इन श्लोकों से यह स्पष्ट मानने योग्य है कि ऐसे अगणित धर्मकृत्य कराने वालों के पास इतने वैभव, घन और वाहनों का होना कोई आश्चर्यकारक बात नहीं ।