________________
११४ ]
:: प्राग्वाट - इतिहास ::
[ द्वितीय
(ई० सन् १२१६) में मालवपति देवपाल को, जो अर्जुनवर्मा की मृत्यु के पश्चात् धाराधीप बना था बुरी तरह परास्त कर अपनी खोयी हुई शक्ति प्राप्त की । इन रणों के कारण गूर्जर भूमि अति निर्बल और दीन हो चुकी थी। जा सर्व प्रकार सदा संत्रस्त रहती थी। प्रजा के धन, जन की सुरक्षा करने वाला कोई शासक या अमात्य नहीं था । सर्वत्र लूट-खशोट एवं अत्याचार बढ़ रहे थे । गुजरात के पुनः समृद्ध और सम्पन्न होने की कोई आशा नहीं दिखाई दे रही थी । पत्तन को छोड़कर अनेक बड़े-बड़े श्रीमंत, शाहूकार अन्यत्र चले गये थे । पत्तन अब एक साधारण
नगर-सा बन गया था ।
I
धवलकपुर का मांडलिक राजा चालुक्य वंश की बाघेलाशाखा में उत्पन्न महामण्डलेश्वर रायक लवणप्रसाद था । लवणप्रसाद अत्यन्त वीर एवं महान पराक्रमी योद्धा था । उसने गुर्जरसम्राट् भीमदेव द्वि० के साथ रहकर अनेक धवलकपुर की बाघेलाशाखा युद्धों में गुर्जरशत्रुओं के दांत खट्टे किये थे । वि० सं० १२७६ (ई० सन् १२१६) के और उसकी उन्नति प्रारंभ में भीमदेव द्वितीय ने महामण्डलेश्वर राणक लवणप्रसाद को अपना वंशीय एवं सुयोग्य तथा महापराक्रमी समझकर 'महाविग्रहिक' का पद प्रदान करते हुये और उसके पुत्र वीरधवल को 'गुर्जर - युवराजपद' से अलंकृत करते हुए गूर्जरसाम्राज्य के ? शासन संचालन का भार अर्पित किया और आप उदासीन रहकर एक संन्यासी की भांति राजप्रासादों में जीवन व्यतीत करने लगे । इस प्रकार लवणप्रसाद के स्कंधों पर अब भारी उत्तरदायित्व आ पड़ा और उसने अनुभव किया कि बिना योग्य मंत्रियों के शासन का कार्य चलाना
(ब) H. I. G. Part 11. वि० सं० १२८० पौष शु० ३ मंगलवार
प्रथम ताम्र पत्र
१६-१८ - 'राणावतार श्री भीमदेवतदनन्तरं स्वाने (स्थाने )........
१६- दि समस्तवरदावली समुपेत श्रीमदणहिलपुरराजधानी अधिष्ठित अभिनवसिद्धराज श्रीमज्जयंतसिंहदेवो ।'
"वीरेत्या
In No. 165
वि० सं० १२८३ कार्त्तिक शु० १५ गुरुवार
प्रथम ताम्र पत्र
१४-१५ - 'धिराजपरमेश्वरपरमभट्टारक अभिनवसिद्धराज सप्तमचक्रवर्तीश्रीमद्भीमदेवः'
Ins. No. 166.
उक्त लेखों से दो बात ये प्रकट होती हैं । प्रथम - भीमदेव द्वि० ने जब, जब महान् विजय की कुछ न कुछ अभिनव उपाधि धारण की, जैसे:
वि० सं० १२५६ में 'अभिनवसिद्धराज'
१२८० में 'अभिनव सिद्धराज श्रीमज्जयन्तसिंह'
33
19
वि० सं० १२६६ में 'बालनारायणावतार' १२८३ में 'अभिनव सिद्धराज सप्तम चक्रवर्ती' द्वितीय बात यह है कि वि० सं० १२८० के ताम्रपत्र में 'जयंत सिंह' नाम देखकर कुछ एक इतिहासकारों को शंका हो गई है कि 'जयंत सिंह' भीमदेव द्वि० से अलग ही व्यक्ति है । परन्तु वि० सं० १२७५ तथा १२८३ के लेखों में 'भीमदेम द्वि०' स्पष्ट उल्लिखित है । अतः वि० सं० १२८३ के लेख में वर्णित 'जयंतसिंह' भीमदेव द्वि० ही है। जयंतसिंह से यहाँ अर्थ सिद्धराज जयसिंह के समान पराक्रम दिखाने वाले तथा उसके समान गुर्जरदेश के अभित्राता से हैं।
१-६० म० म० परि० द्वि० पृ० ७६-८१ श्लोक ७४ से ६७ (सु० की ० कौ० सर्ग २. श्लोक ७४-८१
की ० क )
व० च० प्रस्ताव प्र० श्लोक ४६ 'गृहाणवि महोदय सर्वेश्वरपदं मम । युवराजोऽस्तु मे वीरधवलो घवलो गुणैः ॥ ३६॥ सु० सं० सर्ग० ३ |
सु० सं० सर्ग ० २ श्लोक १५-४४ । 'भर्णोराजङ्गजात कलकलहमहासाहसिक्यं चुलुक्यं । श्री लावण्य प्रसादं व्यतनुत स निज श्री समुद्धारधुर्यम्' ||३३|| ६० म० म० परि० प्र० (व० ते० प्र०)