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खण्ड]
: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और मंत्री भ्राताओं का अमात्य कार्य ::
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करता था। सदीक महाधूर्त एवं कुटिलप्रकृति था । खम्भात की समस्त जनता के दुःख और कष्ट का एकमात्र कारण सदीक था। चतुर एवं नीतिज्ञ महामात्य वस्तुपाल ने सदीक को छेड़ने से प्रथम ठीक यही समझा कि खम्भात की जनता को प्रथम आकृष्ट किया जाय । अयाचारी राजकर्मचारियों को दण्ड दिया, साधु एवं सज्जनों को दुःख देने वाले दुष्टों का दमन किया, व्यभिचारियों को कड़ी यातनाएँ दीं, वेश्याओं को अपमानित कर वेश्यापन का अन्त किया। महामात्य के इन कार्यों से सन्त एवं सज्जन सन्तुष्ट होकर उसका गुणगान करने लगे, दुष्ट, लम्पट एवं चौर सब छिप गये । व्यापारीजन अन्य देशों से जब लौट कर आते थे तथा भारतवर्ष से अन्य देशों में व्यापारार्थ जाते थे, अपने साथ दास क्रीत करके लाते और ले जाते थे, महामात्य ने इस अमानुषिक दासक्रय-विक्रयता का भी अन्त कर दिया। चारों वर्ण एवं सर्वधर्मानुयायी के यहाँ तक की मुसलमान तक महामात्य के गुणों की प्रशंसा करने लगे । कुछ दिनों में ही खम्भात कुछ का कुछ हो गया । महामात्य ने खुले हाथ दान दिया। नंगों, बुभुक्षितों को वस्त्र-अन्न दिया । सर्वत्र सुख और शान्ति प्रसारित हो गई । अत्याचार, लूट का अन्त हो गया। महामात्य ने अब सदीक से जलमण्डपिका एवं स्थलमण्डपिका कर माँगे। अभिमानी सदीक न जब देने से अस्वीकार किया तो महामात्य ने उसके घर को घेर लिया। इस विग्रह में सदीक के कुछ आदमी मारे गये । महामात्य के हाथ सदीक की अनन्त धनराशि लगी, जिसमें अगणित मौक्तिक, माणिक, हीरे, पन्ने एवं अपार सुवर्ण, चाँदी थी । सदीक भाग कर लाट पहुँचा और अपने मित्र लाटनरेश शंख को खम्भात पर आक्रमण करके उसके हुये अपमान का बदला लेने की प्रार्थना की। शंख जलमार्ग से चढ़कर आया । शंख के साथ में दो सहस्र अश्वारोही और पाँच सहस्र पददल सैनिक थे ।
उधर वस्तुपाल भी तैयार था । वस्तुपाल की सैन्य में केवल ५० पच्चास अश्वारोही और अड्दाइ सौ पददल सैनिक थे३ । वस्तुपाल के ये रणबाँकुरे सैनिक समस्त दिनभर समुद्रतट के उस भाग पर जो शंख के सैनिकों से भरे जहाजों के ठीक दृष्टि-पथ में था अनेक बार आवागमन करते रहे । सैनिकों के पुनः २ आवागमन से धूल
आकाश और दिशाओं में इतनी धनी छा गई कि शत्रु को यह पता नहीं लग सका कि वस्तुपाल के पास कितना सैन्य है । शत्रु ने यही समझा कि वस्तुपाल के पास अपार सैन्य हैं । अतिरिक्त इसके वस्तुपाल ने इस अवसर पर एक चाल और चली थी। वह यह थी कि युद्ध किसी भी प्रकार दिन के पिछले प्रहर में प्रारम्भ हो और ऐसा ही हुआ । वस्तुपाल के सैनिकों ने शंख की सैन्य को समुद्रतट पर अवतरित होने नहीं दिया। दोनों में भीषण रण प्रारम्भ हुआ।
१-पु०प्र०सं०व० ते० प्र०१४६) पृ०५६। २-'स जलमार्गेणाचसहस्र २, मनुष्यसहस्र ५ समानीय समुद्रतटे समुत्तीर्णः। प्र०चि० कु० प्र० १८९) पृ० १०२
(वस्तुपाल और शंख के युद्ध का वर्णन समकालीन एवं कुछ वर्षों के पश्चात् हुए कवि एवं ग्रंथकारों के ग्रंथों, प्रशस्तियों में पूरा-पूरा परस्पर मिलता नहीं है। शंख को वस्तुपाल ने दो युद्ध में परास्त किया था और लवणप्रसाद ने शख के साथ संधि द्वितीय युद्ध की समाप्ति पर की थी। कुछ ग्रंथों में दोनों युद्धो का वणेन मिलाकर एक ही युद्ध की घटना बना दी है। सोमेश्वर जैसे महाकवि ने भी एक ही युद्ध के वर्णन में दोनों का वर्णन मिला दिया है। ३-'मंत्री अश्ववार ५० मनुष्यशतद्वयेन बहिर्निर्गतः।"
पु०प्र०सं०व० ते०प्र०१४६) पृ०५७