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खण्ड]
:: मंत्रीभ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-वंश और श्री सिद्धाचलादि तीर्थों की प्रथम संघयात्रा ::
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करेंगे । (प्रबन्धचिंतामणि के कर्ता १३॥ संघयात्रायें करने की बात कहते हैं ) यह पूछने पर कि अर्थ यात्रा से क्या अर्थ है, उसने बतलाने से अस्वीकार किया । महामात्य ने संघ के साथ आगे प्रयाण किया। संघ की शोभा अवर्णनीय थी। मार्ग में थोड़े २ अन्तर पर विश्राम, जलपान की व्यवस्था होती थी। पथ में आते हुये नगर, ग्राम, पुरों के निवासियों का प्रेम और श्रद्धापूर्ण सत्कार-संमान, धर्मोल्लास, पतित और अधर्मी पुरुषों को भी सज्जन बनाने वाला था। आगे आगे सतोरण देवालयों की स्वर्ण कलशावली और ध्वजादण्डपंक्ति, श्रृंगारित सुखासन, बैलगाड़ियाँ, सहस्रों सुसज्जित संघरक्षक अश्वारोहियों का दल, छत्रधारी संघपतिगण, सुन्दर रथों में बैठी हुई देवबालायें जैसी मंगल गीत गाती हुई स्त्रियें, शान्त, दान्त, उद्भट विद्वान् आचार्यगण, परमतपस्वी साधुगण, गायक, नर्तक, मागध, चारण, बंदीजनों का कीर्तिकलरव, वाद्यंत्रियों का मधुररव-यह सर्व अद्भुत प्रदर्शन महामात्य वस्तुपाल की महान् धर्मभावनाओं का मूर्तरूप था। प्रातः और सायंकाल गुरुवंदन, देवदर्शन, धर्मोपदेश के कार्य तथा सर्वत्र संघ में स्थल-स्थल पर दान-पुण्य के कृत्य होते थे। रात्रिभोजन कभी भी नहीं होता था। इस प्रकार मार्ग में पड़ने वाले सात क्षेत्रों का उद्धार करता हुआ, नगर, ग्रामों के मन्दिरों में पूजा, नवप्रतिमायें प्रतिष्ठित करता हुआ, ध्वजा-दण्ड-कलशादि चढ़ाता हुआ तथा विविध प्रकार के अन्य सुकृत करता हुआ यह चतुर्विध संघ वल्लभीपुर पहुँचा । वल्लभीपुर में महाधनी एवं पुण्यात्मा श्रावक रत्नश्रेष्ठि ने संघ का अति स्वागत किया और प्रीतिभोज दिया तथा संघपति महामात्य वस्तुपाल को दक्षिणावर्त्त नामक सर्वसिद्धिकारक शंख अर्पित किया। महामात्य ने अति संकोच के साथ यह कल्पवृक्ष समान मनःकामना पूर्ण करने वाला शंख स्वीकृत किया । संघ यहाँ से आगे बढ़ा और शनैः शनैः पादलितपुर में पहुंचा और उस क्षेत्र में जहाँ आज महामात्य वस्तुपाल
उपरोक्त ग्रन्थों में आये हुये वर्णनों में भी प्रमुख विषय जैसे पुरुषों के नाम, समय, विशिष्ठ उल्लेख, कार्य प्रादि परस्पर मिलते हुए होने से यह मानना अधिक समीचीन होगा कि इन ग्रन्थों में भी वस्तुपाल की प्रथम संघयात्रा का ही वर्णन है, जो उसने सं०१२७७ में की थी।
'अथानुचेलनरचन्द्रसरयो लसत्त्रसस्तोमविलोकनच्छलात्।१०।। अथाचलन् वायटगच्छवत्सलाः कलास्पदं श्रीजिनदत्तसूरयः ।११।। प्रचालि सण्डेरकगच्छरिभिः प्रशान्तसूरैरथ शांतिरिभिः ॥१२॥ स वर्द्धमानाभिधसूरिशेखरस्ततोऽचलद्गलकलोकभास्करः ॥१३॥
सु० सं० स० ५ पृ० ३८, ३६ 'श्रीवीरधवलतेजःपालाभिधसचिवमध्यगः सचिवः । त्रिपुरुषरीतिस्थापितहर इव हरति स्म तत्र मनः ॥११॥
सु०सं० स०११०८५ उक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि महामात्य वस्तुपाल का शुभागमन-उत्सव राणक वीरधवल तथा तेजपाल ने सोत्साह किया था अर्थात् तेजपाल इस संघयात्रा में नहीं जाकर धवलकपुर में ही रहा था।
'वस्तुपाल सचिवेन्द्रशासनं तेजपालसचिवः समाददे ॥१॥ 'तीर्थवन्दनकृते ततः कृती तेजभालमयमात्मनोऽनुजम् । तं च वीरधवलं क्षितीन्द्रमापृच्छय संघपतिरुच्चचाल सः ||३१||
व०वि० स०१०१०५०-५१ इतना सिद्ध कर लेने पर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि उक्त ग्रन्थ प्रथम संघयात्रा से कुछ या अधिक वर्षों पश्चात् लिखे गये थे और पश्चात्वर्ती संघयात्राओं का वर्णन कुछ अंशों में इस प्रथम संघयात्रा के वर्णन में यत्र-तत्र समाविष्ट हो गया है, जिसको अलगअलग संघयात्राओं के अनुसार अलग करना महा कठिन कर्म है। ..वच० प्रचि०१८७) पृ०१००।
(अ) प्र० को० पृ० ११४ । (ब) व० च० प्र० ६ श्लोक ५१-५४ पृ०८४ । (स) की० को० स० ६ पृ० ६१-६२