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प्राग्वाट-इतिहास :
[द्वितीय
द्वारा विनिर्मित महावीर-चैत्यालय से सुशोभित ललित-सरोवर बना हुआ है पड़ाव डाला । कपर्दियक्ष को सर्वप्रथम नमस्कार कर संघपति पवित्र शत्रुजयगिरि पर चढ़ा और परम श्रद्धा और भक्तिपूर्वक दोनों कर जोड़ कर आदिनाथमन्दिर में पहुँचा। वंदन, कीर्तन के पश्चात् महामात्य ने सविधि प्रभुप्रतिमा का प्रक्षालन, अर्चन, पूजन किया और उसी प्रकार समस्त संघ ने प्रभु-पूजा की।
महामात्य वस्तुपाल ने शत्रुञ्जयगिरि पर अनेक धर्मकृत्य करने की प्रतिज्ञा ली तथा अनेक धर्मस्थान समय २ पर बनवाये जो समय पाकर पूर्ण होते गये । उनमें प्रसिद्ध कृत्य इस प्रकार हैं:
१ मुख्य मन्दिर श्री आदिनाथ-चैत्यालय में स्वर्णकलश तथा तोरण चढ़ाये । २ दो प्रौढ़ जिनमूर्तियाँ स्थापित की तथा ३ मन्दिर के आगे इन्द्रमण्डप की रचना करवाई और नंदीश्वरद्वीपावतार नामक प्रासाद बनवाया। ४ सरस्वती की प्रतिमा स्थापित की। ५ सात पूर्वजों की मूर्तियाँ स्थापित की। ६ महाराणक वीरधवल तथा महामण्डलेश्वर लवणप्रसाद की गजारूढ़ दो मूर्तियाँ बनवाई तथा चौकी में आराधक७ ज्येष्ठ भ्राता लूणिग, मल्लदेव की प्रतिमायें बनवाई। र सात गुरुओं की सात मत्तियाँ प्रतिष्पित करवाई। ह सात बहिनों के श्रेयार्थ सात देवकुलिकायें विनिर्मित करवाई। १० शकुनिकाविहार और सत्यपुरावतार मन्दिरों का निर्माण करवाया और उनके आगे चाँदी के तोरण बनवाये। ११ संघ के योग्य कई उपाश्रय बनवाये । १२ श्री मोढेरावतार श्री महावीर चैत्य विनिर्मित करवाया और उसमें १३ श्री महावीर भगवान के यक्ष की प्रतिमा विराजित की तथा १४ देवकुलिकायें बनवाई और १५ मण्डप के दोनों ओर दो-दो चौकी की पंक्ति बनवाई । १६ प्रतोली (पोली), १७ अनुपमा-सरोवर । १८ कपर्दियक्ष-मण्डपतोरण आदि करवाये। १६ कुमारपालविहार में ध्वजादंड तथा स्वर्ण-कलश चढ़ाये । २० पालीताणा में पौषधशाला, एवं प्रपा बनवाई और अनेक धर्मकृत्य किये।
की० को० सर्ग०६ श्लोक १ से ३७ . प्र०चि० व० ते०.०१८७) पृ०१०० २०१०प्र०६पृ०६६ श्लोक ३३ से १७ तक पृ०१०१ सु० सं० सर्ग०११ श्लोक १५ मे २८ तक
[जैन समाज में किसी भी धर्मकृत्य के करने की प्रतिज्ञा (बोली) श्रीसंघ के समक्ष जयध्वनि के साथ पहिले हो जाती है और कार्य फिर यथावसर होते रहते हैं।]
... 'सु०सं०' में भी उक्त धर्मस्थानों का वर्णन यात्रावर्णन में सम्मिलित नहीं दिया है, वरन् सर्ग ११ में वस्तुपाल द्वारा विनिर्मित धर्मस्थानों की सूची देते समय (उक्त धर्मस्थानों का उल्लेख) यथास्थान दे दिया है, जिसको देख कर यह निश्चित नहीं किया जा सकता