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:: प्राम्बाट-इतिहास ::
[द्वितीय
बाहरी आक्रमणों का अंत और अभिनव राजतंत्र के उद्देश्यों की पूर्ति
गूर्जरभूमि पर फिर भी यादवगिरि के राजा सिंघण के पुनः आक्रमण का भय बना हुआ था। वि० सं० १२८८ में सिंघण एक विशाल चतुरंगिणी सैन्य लेकर गूर्जरभूमि पर चढ़ आया । महामात्य के गुप्तचरों से यह सब वि० सं० १२८८ में छिपा नहीं था। महामात्य वस्तुपाल, दंडनायक तेजपाल, स्वयं महामण्डलेश्वर सिंघण का द्वितीय आक्रमण लावण्यप्रसाद गुर्जरभूमि के चुने हुये वीरों का सैन्य लेकर माही नदी के किनारे पर
और स्थायी संधि। शिविर डाल कर सिंघण के आक्रमण की प्रतीक्षा करने लगे। उधर सिंघण मार्ग में पड़ते ग्रामों, नगरों को नष्ट-भ्रष्ट करता हुआ आगे बढ़ता चला आ रहा था। भरौंच का समस्त प्रदेश नष्ट करके ज्योहि उसने आगे बढ़ना चाहा, उसके गुप्तचरों तथा महामात्य वस्तुपाल के भेष बदले हुये गुप्तचरों से उसको यह सब पता लग गया कि कई गुणे सैन्य के साथ मण्डलेश्वर माही नदी के तट पर पड़ा हुआ है । बहुत दिवस निकल गये, लेकिन किधर से भी पहिले आक्रमण करने का साहस नहीं हो सका । अन्त में महामात्य वस्तुपाल के चातुर्य एवं उसके गुप्तचरों के कुशल प्रयास से दोनों में वि० सं० १२८८ वैशाक शु० १५ को संधि हो गई । सिंघण संधि करके पुनः अपने देश को लोट गया। सिंघण और राणक वीरधवल में फिर सदा मैत्री रही।
अब गूर्जरदेश बाहर तथा भीतर सर्व प्रकार के उपद्रवों, विप्लवों, आक्रमणों से मुक्त हो गया । दिल्ली और यादवगिरि के शासकों के साथ हुई संधियों के विषय में श्रवण कर मालवपति भी शाँत बैठ गया और उसने भी दिल्लीपति और सिंधण के गूजेरदेश पर आक्रमण करने का विचार मस्तिष्क में से ही निकाल दिया और फिर बादशाह साथ हुई संधियों का अल्तमश ने जब वि० सं० १२६०-६१ में ग्वालियर को विजय करके दूसरे वर्ष मालवा मालवपति पर प्रभाष पर आक्रमण किया और भीलसा का प्रसिद्ध दुर्ग जीता तथा प्रसिद्ध नगर उज्जैन को नष्ट-भ्रष्ट करके महाकालकेश्वर के मन्दिर को लूटा तब तो इससे और भी मालवपति देवपाल की शक्ति क्षीण हो गई ।
इस अवसर से लाभ उठाकर दंडनायक तेजपाल ने राणक वीरधवल को साथ में लेकर वि० सं० १२६५ में लाट पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि लाटनरेश शंख राणक वीरधवल से वि० सं० १२६३ में पुनः दृढ़ मैत्री लाटनरेश शंख का अन्त कर चुका था । परन्तु फिर भी वह मालवपति और सिंघण से मिलकर छिपे २ षड़यन्त्र
और लाट का गुर्जरभूमि में रचता रहता था, अतः महामात्य ने ऐसे शत्रु का अन्त करने के लिये यह बहुत ही मिलाना
उपयुक्त समय समझा । इस युद्ध में शंख मारा गया और स्वयं राणक वीरधवल घायल होकर अश्व पर से पृथ्वी पर गिर पड़ा। वि० सं० १२६६ (सन् १२३६) में दंडनायक तेजपाल को वहाँ का शासक नियुक्त करके भरौंच सदा के लिये गूर्जरसाम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया ।
यद्यपि वैसे तो गूर्जरभूमि का यह पतनकाल था । जिस गुर्जरभूमि के सम्राटों का लोहा महमूदगौरी, मुहमद मजनवी, कुतुबुद्दीन मान चुके थे, धाराधीप भोज गुर्जरसम्राट की तलवार का भक्ष्य बन चुका था, भारत के किसी मन्त्री भ्राताओं के शौर्य भी प्रान्त, प्रदेश का कोई भी राजा और सम्राट् गूर्जरभूमि पर आक्रमण करने का का संक्षिप्त सिंहावलोकन साहस नहीं कर सकता था, भीम द्वितीय के इस शासनकाल में स्वयं गुर्जरभूमि के
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