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खण्ड]
: प्राचीन गूर्जर-मंत्री-वंश और अर्बुदाचलस्थ श्री विमलवसति ::
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अनन्य शिल्प-कलावतार अर्बुदाचलस्थ श्री विमलवसतिकाख्य
श्री आदिनाथ-जिनालय
मूलगंभारा, गूढमण्डप, नवचौकिया, रंगमण्डप, भ्रमती और
सिंहद्वार आदि का शिल्पकाम अर्बुदाचल पर जो बारह ग्राम बसे हैं, देलवाड़ा भी उनमें एक है। ग्राम तो वैसे इस समय छोटा ही है और स्थान के अध्ययन से यह भी प्रतीत हुआ कि पहिले भी अथवा वहाँ जो मन्दिर बने हैं, उनके निर्माण-समय
_ में भी वह कोई अति बड़ा अथवा समृद्ध नहीं था, क्योंकि जैसे अन्य बड़े और समृद्ध दलवाड़ा और उसका महत्व नगर, ग्रामों के वासियों के अनेक शिलालेख अथवा अन्य धर्मकृत्यों का उल्लेख सहज मिलता है, वैसा यहाँ के किसी वासी का नहीं मिलता। वैसे देलवाड़ा ऐसी जगह बसा है, जहाँ बड़े और समृद्ध मगर का बसना भी शक्य नहीं, परन्तु देलवाड़ा जैनमन्दिरों के कारण छोटा होकर भी बड़े नगरों की इर्षा का भाजन बना हुआ है । यहाँ वैष्णव धर्मस्थान भी छोटे २ अनेक हैं । यह जैन और वैष्णव दोनों के लिये तीर्थस्थान है।
देलवाड़े के निकट एक ऊँची टेकरी पर पाँच जैन-मन्दिर बने हैं। १-दंडनायक विमलशाह द्वारा विनिर्मित विमलवसति, २-दंडनायक तेजपाल द्वारा विनिर्मित लूणवसति, ३-भीमाशाह द्वारा विनिर्मित पित्तलहरवसति, टेकरी पर पाँच जैन-मन्दिर ४-चतुर्मुखी खरतरवसति और ५-वर्द्धमान-जिनालय । वैसे तो महाबलाधिकारी दंड
और उनमें विमलवसतिका नायक विमल का इतिहास लिखते समय विमलवसति का निर्माण कब और क्यों हुआ पर लिखा जा चुका है । यहाँ उसका वर्णन शिल्प की दृष्टि से आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य समझ कर देना चाहता हूँ।
एक जैन-मन्दिर में जितने अंगों की रचना होनी चाहिए वह सब इसमें है; जैसे मूलगंभारा, चौकी, गूढमंडप, नवचौकिया और उसमें दोनों ओर आलय, सभामण्डप, भ्रमती, देवकुलिका की चतुर्दिक हारमाला और उसके आगे स्तम्भवती शाला, सिंहद्वार और उसके भीतर, बाहर की चौकियाँ और चतुर्दिक परिकोष्ट इत्यादि । विमलवसति सर्वाङ्गपूर्ण ही नहीं, सर्वाङ्ग सुन्दर भी है । दूर से इसका बाहरी देखाव जैसा अत्यन्त सादा और कलाविहीन है, उतना ही इसका आभ्यन्तर नख-शिख कलापूर्ण और संसार में एकदम असाधारण है, जो पूर्णरूपेण अवर्णनीय और अकथनीय है। .... ..
परिकोष्ट देवकुलिकाओं के पृष्ट भाग से बना है । इसकी ऊँचाई मध्यम और लम्बाई १४० फीट और चौड़ाई १० फीट है । यह इंट और चूने से बना है। इसमें पूर्व दिशा में द्वार है, जो इसके अनुसार ही छोटा और सादा
है और यह ही द्वार सर्वाङ्गपूर्ण और सर्वाङ्गसुन्दर जगद्-विख्यात शिल्पकलाप्रतिमा, परिकोष्ट और सिंह-द्वार
बार देवलोकदुर्लभ, इन्द्रसभातीत विमलवसति का सिंह-द्वार है। सिंह-द्वार के आगे भृङ्गार-चौकी है।