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:: प्राग्वाट-इतिहास:
[द्वितीय
स्वाभिमानी कोषाधिपति मन्त्री सोम
शूर और सोम का पूरा नाम शूरसिंह तथा सोमसिंह हैं। जयश्री? के ये दो पुत्र उत्पन्न हुये । शूररे अति पराक्रमी और वीर था। सोम३ परम शांत और कुशाग्रबुद्धि था । वह गूर्जरसम्राट् सिद्धराज का रत्नकोषाध्यक्ष था । शूर और सोम
सोम अपने जिनधर्म में दृढ़ एवं वचनों में अडिग था। उसने जिनेश्वरदेव के अतिरिक्त
किसी अन्य देव को देव नहीं माना, धर्मगुरु हरिभद्रसूरि के अतिरिक्त किसी अन्य साधु, आचार्य को गुरु नहीं माना तथा गूर्जरसम्राट् सिद्धराज जयसिंह के अतिरिक्त किसी अन्य सम्राट को उसने अपना स्वामी नहीं माना । पूर्वजों के सदृश ही वह भी महादानी एवं उदारहृदयी था।
सोम की स्त्री का नाम सीता था। सीता से सोम को अश्वराज, त्रिभुवनपाल (तिहुणपाल) नामक दो पुत्र तथा केलीकुमारी नामक एक पुत्री की प्राप्ति हुई।४
१-'शास्त्रार्थवारिभरहारिहृदालवालसंरोपिता मतिलता वितता नितान्तम् ।
यस्य प्रकाशितरविग्रहतापवद्भिश्छायार्थिभिनुपकुलैः फलदा सिषेवे ॥६॥ 'पुण्यस्य पापपटली जयिनो जयश्रीरासीत्तदीयदयिता नयभूर्जयश्रीः७।'
न० ना० नं० सर्ग१६ 'समजनि जिनसेवानित्यहेवाकवृत्तिःप्रगुणगुणगणश्रीस्तस्य कान्ता जयश्रीः।१०।' ह० म०म० परि० त० (सु०की०क०) २-३-'स श्रीमानुदयाचलोज्ज्वलरुचिमैत्र्यं दधानो जने । शूरः क्रूरतमः समुच्चयभिदाशरः कथं वर्यते ॥१०॥
'भ्राता वातायन इव धियां तस्य निःसीमकीर्तिस्तोमः सोमः समजनि जनालोकनीयः कनीयान् ।' देवो देवेष्विव जिनपतिर्मानसे मानसेकाद्यस्यावश्यं नृपतिषु पतिः सिद्धराजो रराज ।।१०४॥'
ह० म०म० परि० त० (सु० की० क०) 'तत्र श्रीसिद्धराजोपि रत्नकोशं न्यवीविशत् ॥१४॥'
की० को०-पृ०२२ (मन्त्री-स्थापना) 'चूडामणिकृतजिनाघ्रिनखप्रपंचः कर्णस्फुरद्गुरुसुवर्णविभूषणश्रीः । सद्वर्त्मनि प्रचलदुर्मदमोहचौर दुसञ्चरेपि विललास य एव शुरः ॥१०॥' 'सोमाभिधस्तदनुजःसुजनाननाब्जसूर्योऽभवद्विबुधसिंधुविशुद्धबुद्धिः। यन्मानसेऽद्भुतरसे विललास वार्द्धिक्षिप्तौर्वतापविधुरेव सरस्वतीयम् ॥१२॥' 'देवःपरंजिनवरो हरिभद्रसूरिः सत्यं गुरुः परिवृढ़ः खलु सिद्धराजः ॥१४॥
न० ना० नं० सर्ग१६ ३-०॥ सं०१२८४ वर्षे।। 'विश्वानन्दकरः सदागुरुरुचिर्जीमूतलीला दधौ, सोमश्वारुपवित्रचित्रविकसह वेशधर्मोनतिः। चके मार्गणपाणि शुक्ति कुहरे यः स्वातिवृष्टिन जैमुक्त मौक्तिकनिर्मलं शुचि यशो दिकामिनीमंडनं ॥१॥ युक्त' य..."सोमसचिवः कुन्देन्दुशुभैर्गुणैरिद्धः: सिद्धनृपं विमुच्य सुकृति चक्रे न कंचिद्विभु। रंगद् (भृ') गमदप्रदच्छदभरः (मदः) श्री सद्मपद्म किमु । सो (स्वो) ल्लासाय विहाय भास्करमहस्तेजोऽन्तरं वाञ्छति ॥२॥ पर्याणैषीदसौ सीतामविश्वामित्रसंगतः अभूतत्रि (?) तमहाधर्मलाघवो राघवोऽपरः॥३॥
जै० स० प्र० वर्ष ३ अङ्क ४ पृ०१४८ (अभ्यासगृहपत्रिका, पाटण वर्ष ६ अङ्क ३) ४-'अनुजोऽस्यापि सुमनुजास्त्रिभुवनपालस्तथा स्वसाकेली अाशाराजस्याजनि जाया च कुमारदेवीति ।।८।।
जै० ले० सं० ले०१७६३ (खंभातस्थलेखाः) रासमाला भा०२ पृ० ४६५ पर दिये वंशवृक्ष से जो यहां भी दिया जाता है से प्रगट होता है कि सोम के तीन पुत्र थे। उक्त वंशवृक्ष का आधार रासमाला के गुजरातीभाषान्तरकर्ता ने उक्त पृ० के चरणलेख में लिखा है 'प्राग्वाटवंशवर्णन श्रेवा मथालानु एक प्राचीन पानु अमारी पासे छे, ते कीर्ति कौमुदीना पारशिष्ट अमा, तेमज भावनगर लेखमाला ना पृ०१७४ मा आबू पर्वत ऊपरना देलवाड़ा मा आदिनाथ ना देरासर नी पासे नी धर्मशाला नी एक भीत मा संवत् १२६७ (ई० स०१२११) फाल्गुन बदी१० सोमवार नो शिलालेख छे', ते उपरथी लखेलो छे, कीर्ति-कौमुदी (संस्कृत एवं गुजराती भाषान्तर) के परिशिष्ट अ में उक्त लेख नहीं मिला। लेखक