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:: प्राग्वाट अथवा पोरवालज्ञाति और उसके भेद ::
मारवाड़ी-शाखा के मोत्र प्रायः सर्व शानिय और मानल गौत्र हैं। अन्य शाखाओं में अटके नहीं के बराबर है, परन्तु इस शाखा में अटक और नख दोनों विद्यमान हैं। निष्कर्ष में यही समझना है कि इस शाखा के कुल अविकार: विक्रम की अाठवीं शताब्दी में जैन दीक्षित हुये थे तथा इस शाखा के गोत्रों के नामों में यह विशेषता एवं ऐतिहासिक तथ्य रहा है कि इस शाखा के सर्व कुलों के गोत्र जैनधर्म स्वीकार करने के पूर्व जी उनका कुल था, उस नाम के ही हैं ; अत: यह विवाद ही उत्पन्न नहीं होता कि ये किस कुल में से जैन बने थे। अपने आप सिद्ध है कि ये क्षत्रिय और ब्राह्मणकुलों से बने हैं। इस बीसा-मारवाड़ी पोरवालशाखा के गोत्र और अटकों की सूची पूर्व के पृष्ठ ३६, ४० पर आ चुकी है ; अतः फिर यहाँ देना ठीक नहीं समझता हूँ।*
पुरवार
___ इस ज्ञाति के प्रसिद्ध, अनुभकी वृद्ध एवं पण्डित अपनी ज्ञाति की उत्पत्ति राजस्थान से मानते हैं। वे दिल्ली के श्रेठि की विवाहिता होती हुई कन्या और अकबर बादशाह द्वारा उसका डोला मांगना तथा राजा बीरबल द्वारा उसमें बीच-बचाव करने की कथा को अपनी ज्ञाति में घटी हुई मानते हैं। के राजा पुल से अपनी उत्पन्ति झेना भी समझते हैं। अंगड़ा पोस्वाड़ भी उक्त श्रुतियों एक दन्तकाओं को अपनी ज्ञाति में कटी बतलाते हैं । मतः हो सकता है यह शक्ति अमझा-पोवाड़ों की ही शाखा है, जो संयुक्तमान्त, कुन्दलखण्ड, मध्यभारत में क्सकर उनसे अलम पड़ गई और अलग स्वतन्त्र शान्ति वन मर्छ ।*
इस ज्ञाति में न तो गोत्र ही हैं और न दस्सा, बीसा जैसे भेद । यह ज्ञाति वर्तमान में समूची वैष्णवमतावलम्बी है। इस झाक्ति के कुलों का वर्सन लिखने वाले वैष्णवमतानुयायी पट्टियाँ हैं । संयुक्तप्रान्त, मध्यभारत, बुन्देलखण्ड में पीछे से जैनज्ञाति और जैनधर्म जैसा पूर्व लिखा जा चुका है, अन्तप्रायः हो गये थे। उनमें वैष्णव
* 'पुस्याए 'पोरवाड़ा और 'पौरवाला तीनों एक ही शब्द हैं। इनमें रहा हुआ अन्तर प्रान्तीय-भाषाओं के प्रभाव के कारण उद्भूत हुआ है। संयुक्तकात में गुड़ को गुर, गाड़ी को गारी कहते हैं । यहाँ भी वाड़ का 'वार' बन गया है।
__ *अखिल-भारतवर्षीय-पुरवार-महासभा का अधिवेशन ता०१३,१४ अक्टोबर सन् १९५१ में महमूदाबाद में हुआ था। उक्त सभा के मानद मंत्री श्री जयकान्त पुरवार अमरावतीनिवासी के साथ मेरा पत्र-व्यवहार लगभग तीन वर्ष से अधिक हुये हो रहा था। यह सम्बन्ध वैद्य श्री बिहारीलालजी पुरवार, पौरवाल-बदर्स के मालिक, फिरोजाबाद के द्वारा और उनकी प्राग्वाट इतिहास के प्रति अगाध रुचि और सद्भावना के फलस्वरूप जुड़ सका था.। उक्त सम्मेलन में मुझको और श्री ताराचन्द्रजी दोनों को आमन्त्रण मिला था। मैं उक्त सम्मेलन में सम्मिलित हुआ. और पुरवार ज्ञाति के कईएक पण्डित, युवक, पत्रकार, अनुभवी एवं वृद्धगण और श्रीमंत सज्जनों से मिलने और वार्तालाप करने का अवसर प्राप्त हुआ था। मेरे 'पुरवारज्ञाति का पौरवालज्ञाति से सम्बन्ध' विषय पर लम्बा व्याख्यान मी हुआ था। उक्त सम्मेलन में मुझको यह अनुभव करने को मिली कि पुरवारज्ञाति और पोरवालज्ञाति में उत्पत्ति, डोलावाली कथा को लेकर कई एक दंतकथायें एक-सी प्रचलित हैं। पुरवारज्ञाति में अभी भी जैन-संस्कृति विद्यमान है। इस ज्ञाति के अनेक कुल प्याज, लहसन जैसी चीज का उपयोग नहीं करते हैं। मातायें रात्रि-भोजन का निषेध करती हैं।