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: प्राग्वाट-इतिहास:
[द्वितीय
दशरथ ने १७ सत्रह श्लोकों की एक प्रशस्ति शिलापट्ट पर उत्कीणित करवाई, जिसमें उसने अपने महागौरवशाली कीतिवंत पूर्वजों एवं उक्त प्रतिष्ठा का सविस्तार वर्णन करवाया तथा मंगलाचरण के पश्चात् श्रीमालपुर का नामोल्लेख द्वितीय श्लोक में बड़े आदर के सहित करवाया।
होता है। यह समाधान केवल अनैतिहासिक कल्पना है जो अर्थ तथा संगति बैठाने की दृष्टि से गढ़ी गई है। प्रथम मत पर विचार करते समय में भी यहाँ यह मान लेता हूँ, जैसा अनुभव कहता है कि नकल करने वाले ने 'पुरोत्थ' के स्थान पर 'कुलोत्थ' उत्कीर्ण कर दिया और लेख शिला पर होने के कारण पुनः शुद्ध नहीं करवाया जा सका । दशरथ जैसे बुद्धिमान् एवं श्रीमंत ने यह अशुद्धि सहन कैसे कीयह प्रश्न उठता है। इस शंका का निराकरण इस अर्थ से हो जाता है कि 'श्री श्रीमालकुलोत्थ' श्रीमालपुर (भिन्नमाल) के कुल से उत्पच अर्थात् यह प्राग्वाटवंश श्री श्रीमालपुर में निवास करने वाले कुल से जैनदीक्षित होकर संभूत हुआ है और 'श्री श्रीमालपुरोत्थ' का अर्थ भी यही है कि श्री श्रीमालपुर से उत्पन्न अर्थात् श्रीमालपुर इस प्राग्वाटवंश का आदि पैतृक जन्म-स्थान है। दोनों अर्थों का आशय एक ही है, कुछ भी अन्तर नहीं है। अतः दशरथ ने इस शिला-लेख के आरोपण में अधिक श्रागा-पीछा विचार करने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं समझी । परन्तु बात यह नहीं होनी चाहिए। अ० प्रा० जै० ले० सं०भा०२ लेखांक ४७ में, जो दशरथ के द्वारा ही उत्कीणित करवाया हुआ है 'श्रीमालकुलोद्भव' का प्रयोग किया गया है । अतः यह प्रयोग समझ कर ही किया गया है सिद्ध होता है। यह दशरथ की पैत्रिक जन्म भूमि के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति का प्रतीक है ही माना जायगा। ... मुनिराज जिनविजयजी ने भी 'श्रीमालकुलोद्भव' शब्द को लेकर अपनी प्रा० जै० ले० सं० भा०२ के अवलोकन-विभाग ०१४ के लिख दिया है, 'वीर महामन्त्री अने नेढ़ आदि तेना पुत्र-पौत्रों प्राग्वाट नहीं पण श्रीमालज्ञातिना हता' -