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खण्ड]
:: प्राचीन गूर्जर-मंत्री-वंश और दंडनायक लहर ::
एवं परिश्रम से पुनः वैसा ही कोटीश्वर एवं प्रसिद्ध हो गया। जब वि० सं०८०२ में वनराज ने अणहिलपुरपत्तन की नींव डाली, तब वह निन्नक को बड़े सम्मान के साथ अणहिलपुरपत्तन में स्वयं लेकर आया. और उसको मन्त्रीपद पर आरूढ़ किया । गूर्जरेश्वर वनराज निन्नक का सदा पितातुल्य सम्मान करता रहा । निनक ने भी गूर्जरभूमि एवं गूर्जरेश्वर की तन, मन, धन से सेवा की। निनक ने अणहिलपुर में ऋषभ-भवन (आदीश्वरजिनमन्दिर) बनाया तथा उक्त मन्दिर को ध्वन-पताकाओं से सुशोभित किया । ___गूर्जरेश्वर वनराज पर शीलगुणसूरि तथा निन्नक का अतिशय प्रभाव था। इन दोनों को वह अपने संरक्षक एवं पितातुल्य समझता था। फलतः उसके ऊपर जैनधर्म का भी अतिशय प्रभाव पड़ा। गूर्जरेश्वर वनराज ने
शीलगुणसूरिगुरु के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के अभिप्राय से पंचासर-पार्श्वनाथ वनराज पर जैनधर्म का प्रभाव
" नामक एक विशाल जैनमन्दिर बनाया। इसमें निनक के प्रभाव का अधिक फल था । · महामात्य निनक की स्त्री का नाम नारंगदेवी था। नारंगदेवी की कुक्षि से महापराक्रमी पुत्र लहर का जन्म हुआ। लहर अपने पिता के तुल्य ही बुद्धिमान, शूरवीर एवं रणनिपुण निकला। नारंगदेवी वीर एवं धर्मात्मा निचक की स्त्री नारंगदेवी व . पति की धर्मानुरागिणी एवं उदार चित्तवाली पत्नी थी। उसने अणहिलपुरपत्तन में पराक्रमी पुत्र लहर . नारिंगण पार्श्वनाथस्वामी की वि० सं०८३८ में प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई। महामात्य निनक ने अपनी पतिपरायणा स्त्री के नाम से नारंगपुर नामक एक नगर बसाया और उस नगर में उसके श्रेयार्थ श्री पार्श्वनाथ-चैत्यालय बनाया, जिसकी प्रतिष्ठा शंखेश्वरगच्छीय श्रीमद् धर्मचन्द्रमुरिजी के उपदेश से हुई। सम्राट् वनराज का देहावसान वि० सं० ८६२ में हुआ । इसकी मृत्यु के २-४ वर्ष पूर्व ही महामात्य निन्नक स्वर्गवासी हुआ । महामात्य निनक अपनी अन्तिम अवस्था तक गूर्जर-साम्राज्य की सेवा करता रहा। इसमें कोई शंका नहीं कि अगर गूर्जरसम्राट् वनराज अणहिलपुर एवं अपने वंश का प्रथम गूर्जरसम्राट् था, तो निनक गूर्जरसाम्राज्य की नींव को सुदृढ़ करने वाला प्रथम महामात्य था। वनराज की मृत्यु के पूर्व ही लहर ने अपने योग्य वृद्ध पिता का अमात्य-भार सम्भाल लिया था।
दंडनायक लहर
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गूर्जरसम्राट वनराज को हाथियों का बड़ा शौक था। महामात्य निमक ने भी हाथियों का एक विशाल दल खड़ा किया था। लहर वीर एवं महा बुद्धिमान था। पिता की उपस्थिति में ही वह दंडनायक पद पर प्रारूड़ दंडनायक विमल का पिता. हो चुका था। वह अपने पिता के सदृश ही अजेय योद्धा, महापराक्रमी पुरुष था। एक मह दंडनायक लहर महाबलशाली गूर्जर-सैन्य लेकर विद्याचलगिरि की ओर चला । मार्ग में आई हुई अनेक बाधाओं को पार करता हुआ, विहड़ वन, उपवन, अगम्य पार्वतीय संकीर्ण मार्गों में होकर विद्यगिरि के * बन्धुमइयाह अहिल्लपुरे वणरायनिवइनीएण| विज्जाहरगच्छेरिसहजिणहरं तेण कारवियं ॥ .
D. C. M. P. (G. O. V. L XXVI.) P. 253 (चन्द्रप्रभस्वामी-चरित्र),