________________
:: प्राग्वाट-इतिहास :
[द्वितीय
के राजा, नाडोल तथा जालोर के राजाओं के साथ में गूर्जरसम्राट् की अनबन थी, इस दृष्टि से भी दंडनायक जैसे पराक्रमी एवं नीतिज्ञ व्यक्ति का ऐसे स्थान में, जहाँ से वह शत्र राजाओं की हलचल को सतर्कता से देख सकता था तथा उनपर अंकुरा रख सकता था, रहना उचित ही था। चन्द्रावती ही एक ऐसा स्थान था जो सर्व प्रकार से उपयुक्त था । अतः विमलशाह अपने अन्तिम समय तक चन्द्रावती में ही रहा । वैसे चन्द्रावती से विमलशाह को व्यक्तिगत स्नेह भी था। विमलशाह ारासण की अम्बिकादेवी का परमभक्त था। आरासणस्थान चन्द्रावती के सन्निकट तथा चन्द्रावती-राज्य के अन्तर्गत ही था। उसके लिये चन्द्रावती में रहने के विभिन्न कारणों में प्रबल कारण एक यह भी था ।*
विमलशाह ने अपने शासन-समय में चन्द्रावतीनगरी की शोभा बढ़ाने में अतिशय प्रयत्न किया था। विमलशाह के वहाँ रहने से वह नगरी अत्यन्त सुरक्षित मानी जाने लगी थी। उसका व्यापार, कला-कौशल एक दम उन्नत हो उठा था। अनेक श्रीमन्त जैनकुटुम्ब और प्रसिद्ध कलामर्मज्ञ, शिल्पकार वहाँ आकर बस गये थे। कुम्भारियातीर्थ तथा अर्बुदगिरितीर्थ के जैन एवं जैनेतर मन्दिरों के निर्माण में अधिक श्रम चन्द्रावती के प्रसिद्ध एवं कुशल कारीगरों का है, ऐसा कहने में कोई हिचक नहीं है। धंधुक को चन्द्रावती का राज्य पुनः सौंप देने से भी चन्द्रावती की बढ़ती हुई शोभा एवं उन्नति में कोई अन्तर नहीं आया था, क्योंकि महापराक्रमी एवं अतुल वैभवशाली दंडनायक विमल चन्द्रावती तथा अचलगढ़ दुर्ग में ही अन्तिम समय तक अपने प्रसिद्ध अजेय सैन्य के साथ रहा था । समस्त चन्द्रावती-प्रदेश से ही उसको संमोह-सा हो गया था।
अभी जहाँ जगद् विख्यात विमलवसतिका अवस्थित है, वहाँ उस समय चम्पा के वृक्ष उगे हुये थे। किसी एक चम्पा वृक्ष के नीचे भगवान् आदिनाथ की जिनप्रतिमा निकली। दंडनायक विमल को जब यह आनन्ददायी समाचार प्राप्त हुये वह अर्बुदगिरि पर पहुंचा और उक्त प्रतिमा के दर्शन कर अति आनन्दित हुआ। प्रतिमा को उसने सुरक्षित स्थान पर रखवा दी और पूजन-अर्चन की समस्त व्यवस्था करके चन्द्रावती लौट आया। उन्हीं दिनों में चन्द्रावती में प्रसिद्ध आचार्य धर्मघोषसूरि विराजमान थे। दंडनायक विमल उनकी सेवा में पहुंचा और उनसे उक्त प्रतिमा सम्बन्धी वर्णन निवेदन किया। दंडनायक विमल को महान् धर्मात्मा जानकर आचार्यजी ने •
*ध्यानलीन मनास्तथी, विमलोऽपि ततः स्थिरम् । अम्बिकापि जवादित्य, तमाचष्टिति तद्यथा ॥४७॥ व० च० प्र०८पृ०११७ सचिरमर्बुदाधिपत्यमभुनक, गुज्जरेश्वर प्रसत्तेः।
प्र० को०१४७ पृ० १२१ (व०प्र०) चन्द्रावती-राज्य अर्बुदप्रदेश कहाता था। अर्बुदाचल से ठीक थोड़ी दूरी पर पूर्व, दक्षिण में मेदपाट, पूर्वोत्तर में नाडोल, उत्तर में अजमेर तथा पश्चिमोत्तर में जालोर के राज्य थे। चन्द्रावती अवशेष हो गई, परन्तु अन्य सर्व नगर आज भी विद्यमान हैं। अर्बुदाचल से बीस मील दक्षिण पूर्व में पारासण की पर्वतमाला श्राई हुई है। इस पर्वतश्रेणी के मध्य में पारासणनगर बसा हुआ था। पीछे से गरासीज्ञाति के कुम्भा नामक किसी व्यक्ति ने आरासण पर अपना अधिकार स्थापित किया। उस समय से यह स्थान कुम्भारिया नाम से प्रसिद्ध हुआ । वर्तमान में यह दाताभवानगढ़-राज्य के अन्तर्गत है ।
विमल पारासण की अम्बिकादेवी का परम भक्त था। जैसा ऊपर कहा गया है कि श्रारासण चन्द्रावती-राज्य के अन्तर्गत था, दंडनायक विमल अर्बुदाचल की रमणीय एवं उन्नत पर्वतश्रेणियों, पार्वतीय समतल स्थलों से भलीभांति परिचित ही नहीं था, लेकिन उनसे उसको अति मोह भी हो गया था । पारासण जाते-आते इन्हीं स्थलों में होकर जाना पड़ता है तथा शत्रुओं को छकाने में भी इन स्थलों का उपयोग बड़ा ही लाभकारी सिद्ध हो चुका था। विमल जैसे पराक्रमी एवं धर्मवती पुरुष को अगर ऐसे स्थलों से अधिक मोह उत्पच हो जाय तो आश्चर्य की बात नहीं थी।